संवत् १८६ के माघ महीने की कृष्ण प्रतिपदा को प्रातःकाल श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन की ऊपरी मंजिल के आगे प्रातःकाल विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने मुनियों से इस प्रकार पूछा कि - ''जिसकी कुशाग्रबुद्धि होती है, उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है, फिर भी क्या लौकिक व्यवहार में अत्यन्त दक्ष पुरुष या शास्त्रों एवं पुराणों के बहु-अर्थवेत्ता को कुशाग्र बुद्धिवाला कहा जा सकता है या नहीं ?'' इसका उत्तर समस्त मुनि देने लगे, लेकिन यथार्थ रुप से न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि ''कितने ही लोग तो व्यवहार में अति निपुण हो तो भी वे आत्मकल्याण के लिए कुछ भी यत्न नहीं करते और कितने लोग तो जो शास्त्रों पुराणों और इतिहास के अर्थों के अच्छे जानकार हैं, किन्तु वे अपने कल्याण के लिए कोई भी प्रयास नहीं करते इसलिए उन्हें कुशाग्र बुद्धिवाला न माना जाय । ऐसे पुरुषों को तो स्थूल बुद्धिवाला समझा जाना चाहिए। जो पुरुष कल्याण के लिए प्रयत्न करते हैं, वे अल्प बुद्धि होने पर भी कुशाग्र बुद्धिवाले होते हैं । जो पुरुष लौकिक व्यवहार में एकाग्र होकर जुटा हुआ है, वह अतिसूक्ष्म बुद्धि का होने पर भी स्थूल बुद्धिवाला कहलाता है । इस विषय पर भगवद् गीता का एक श्लोक द्रष्टव्य है -
'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।'
इस श्लोक का अर्थ यह है कि भगवान का भजन करने में तो समस्त जगत के जीवों की बुद्धि रात्रि के समान अंधकारमय बनी रहती है अर्थात ऐसे जीव भगवान का भजन नहीं करते जो भगवद्भक्त हैं, वे तो भगवान के भजन के सम्बन्ध में जागृत रहते हैं । अर्थात् वे भगवान का निरन्तर भजन करते रहने के कार्य में लगे हुए हैं । जहाँ जीवमात्र की बुद्धि शब्द, स्पर्श, रुप, रस तथा गंध नामक पांच विषयों में जाग्रत बनी हुई है अर्थात ये जीव विषयों को भोगने में ही लगे हुए हैं । भगवान के भक्तों की बुद्धि तो इन विषय भोगों के प्रति अंधकार युक्त बनी रहती है, अर्थात् वे विषयों का उपभोग नहीं करते । इस कारण, आत्म कल्याण के लिए एकाग्र रहनेवाले पुरुषों को ही कुशाग्र बुद्धिवाला माना जाएगा, उनके बगैर तो सब मूर्ख हैं ।''
इति वचनामृतम् ।। ५० ।।