संवत् १८६ में पौष शुक्ल षष्ठी के दिन संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उनके सिर पर सफेद फेंटा बंधा था और उन्होंने श्वेत दुपट्टा डाला था, गरम पोस की लाल बगलबंडी पहने थे और सफेद शाल ओढी थी । उनके सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज परमहंसों से बोले कि - 'ज्ञान के द्वारा जो स्थिति होती है, उसे कहते हैं । वह ज्ञान कैसा है ? वह तो प्रकृति - पुरुष से परे है जब ज्ञान में स्थिति होती है तब प्रकृति - पुरुष और उनका कार्य, कुछ भी नजर में नही आता है । उसे ज्ञान प्रलय कहते हैं । जिसकी ऐसी स्थिति होती है, उसे एकरस चैतन्य महेसूस होती है और उसमें केवल भगवान की मूर्ति रहती है, परन्तु कोई दूसरा आकार नहीं रहता । कभी तो उस प्रकाश में भगवान की मूर्ति भी नहीं दिखायी पडती । केवल प्रकाश ही दिखायी पडता है । कभी-कभी तो प्रकाश भी दिखायी पडता है और भगवान की मूर्ति भी दिखाई पडती है । ज्ञान द्वारा इस स्थिति की अनुभूति होती है । भगवान की जैसी मूर्ति प्रत्यक्ष रुप में दिखायी पडती है, उसमें अखंड वृत्ति रहने पर ऐसी स्थिति होती है । जिसे भगवान की महिमा जैसी समझ में आयी हो, उसके हृदय में उतना ही प्रकाश होता है और उसे उतना ही प्रणव नाद सुनायी पडता है । जिसमें भगवान संबंधी जितना निश्चय होता है और उनकी महिमा समझ में आती है, उसके उतने ही बुरे संकल्प समाप्त हो जाते हैं । जब भगवान के संबंध में यथार्थ निश्चय होता है तथा यथार्थ रुप में उनकी महिमा समझ में आती है, तब उससे बुरे संकल्प पूरी तरह मिट जाते हैं । जिस प्रकार नींबू की एक फांक चूसने पर दांत थोडे खट्टे पड जाते हैं, परन्तु चने धीरे - धीरे चबाये जा सकते हैं, किन्तु पूरा निम्बू चूसा हो तो, चने चबादे जा सकते नहीं है मगर मूंग का दाना बडी मुश्किल से चबाया जाता है। अगर बहुत नींबू चूस डाला होतो पकाया भात भी नहीं खाया जा सकता । उसी तरह भगवान संबंधी निश्चय तथा माहात्म्यरुपी खटाई लगने पर उसके चार अंतःकरण एवं दस इन्द्रिय रुपी दाढे खट्टी हो जाती हैं । तब वह जीव अपनी मनरुपी दाढों द्वारा विषयों के संकल्परुपी चने चबाने में समर्थ नहीं हो पाता और वह चित्तरुपी अपनी दाढ से विषय का चिन्तन करने में असमर्थ रहता है । तथा बुद्धिरुपी अपनी दाढ से विषयों का निश्चय करने में समर्थ नहीं होता । साथ ही वह अहंकार रुपी अपनी दाढ द्वारा विषय संबंधी अभिमान करने में असमर्थ रहता है । पंचज्ञानेन्द्रिय और पंच कर्मेन्द्रियरुपी जो दाढें हैं, उनके द्वारा वह उन - उन इन्द्रियों के विषयरुपी चने चबाने में समर्थ नहीं होता । जिन्हें भगवान के संबंध में यथार्थ निश्चय न हुआ हो तथा भगवान की महिमा यथार्थ रुप में समझ में न आयी हो, उनकी इन्द्रियाँ तथा अंतःकरण अपने - अपने विषयों से यथार्थ रुप में निवृत्त नहीं हो पाते । भगवान का स्वरुप तो माया और उसके गुणों से परे है, समस्त विकारों से रहित है, लेकिन वे जीव के कल्याण के लिए मनुष्य जैसे द्रष्टिगोचर होते हैं। ऐसे भगवान में मंदमति वाले जो लोग जिन - जिन दोषों की कल्पना करते हैं, उनमें से कोई भी दोष भगवान में नहीं है, किन्तु इस प्रकार की कल्पना करनेवालों की बुद्धि में से दोष किसी भी समय नष्ट नहीं हो सकते । जो लोग भगवान को कामी, क्रोधी, लोभी तथा ईर्ष्यालु समझते हैं, वे स्वयमेव अत्यन्त कामी, क्रोधी, लोभी तथा ईर्ष्यावान हो जाते हैं । जो व्यक्ति भगवान पर इस प्रकार का दोषारोपण करते हैं, वे तो सूर्य के सामने फेंकी हुई धूल अपनी आँख में ही पडती है, वैसे ही जिन प्रकार के दोषों की कल्पना वह भगवान में कहता हैं इन दोषों से स्वयं को ही दुःखी बना लेते है । स्वयं का बुरा स्वभाव होने पर भी जो लोग भगवान को अतिशय निर्दोष समझते हैं वे स्वयं अत्यन्त निर्दोष हो जाते है ।' फिर ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा कि - 'यदि किसी भी विषय में अपनी इन्द्रियाँ आकर्षित न होती हों, अंतःकरण में भी असत संकल्प न रहते हों और भगवान का निश्चय भी यथार्थ रुप से रहता हो, तो भी यदि अपूर्णता रहती है और अंतःकरण सूना रहता है तो इसका क्या कारण है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'कि यह भी हरि भक्त में एक बडी कमी है कि उसका मन यद्यपि स्थिर हो चुका है तथा भगवान के प्रति निश्चय भी दृढ है, फिर भी हृदय में ऐसा अतिशय आनंद नहीं आता कि मैं धन्य हूँ और कृतार्थ हुआ हूँ । संसार में जो जीव हैं वे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा तथा तृष्णा से परेशान होते रहते हैं और त्रिविध तापों से रात-दिन जलते रहते हैं, किन्तु, मुझे तो प्रकट पुरुषोत्तम ने करुणा करके अपने स्वरुप की पहचान करायी है, कामक्रोधादि समस्त विकारों से मुक्त कर दिया है तथा नारद सनकादिक जैसे संतों के समागम में रखा है, इसलिए मेरा बड भाग्य है । वह इस प्रकार विचार नहीं करता तथा आठों प्रहर अतिशय आनंदमग्न नहीं रहता । यह एक बडी कमी है । जिस प्रकार बालक के हाथ में चिंतामणी रत्न दे दिया हो, किन्तु उसे उसका महत्त्व प्रतीत नहीं होता, इसलिए उसे उसका आनंद नहीं मिल पाता । उसी प्रकार वह यह नहीं समझ पाता कि मुझे भगवान पुरुषोत्तम मिले हैं और आठों पहर अंतःकरण में कृतार्थता नहीं रहती कि मैं पूर्णकाम हुआ हूँ । ऐसा नहीं समझता, यह हरिभक्त में बडी कमी है । जब कभी किसी हरिभक्त का दोष दिखायी पडे, तब यही समझना चाहिए कि इसका स्वभाव सत्संग में सम्मिलित होने योग्य नहीं है, तथापि उसे जो सत्संग मिला है और यदि वह फिर भी जैसा का तैसा होने के 'बाद भी सत्संग में पडा है, तो उसके पूर्वजन्म या इस जन्म के संस्कार भारी हैं और उन्हीं के कारण उसे ऐसा सत्संग मिला है । ऐसा समझकर उसका भी अतिशय गुण ग्रहण करना चाहिए ।' इतनी वार्ता करने के बाद श्रीजी महाराज जय सच्चिदानंद कहकर अपने निवास पर पधारे।
इति वचनामृतम् ।। २४ ।।