संवत् १८६ की पौष शुक्ल सप्तमी के दिन को प्रातःकाल में श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों की जगह पर पधारे। उन्होंने सफेद दुपट्टा धारण किया था और श्वेत शाल ओढी थी, सफेद फेंटा बांधा था और वे पश्चिमी द्वार के बरामदे में पूर्वाभिमुख होकर विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज कृपा करके बोले कि - 'भगवान के स्वधर्मयुक्त भक्त के अंतःकरण में यथार्थ पूर्णकाम-भावना मानती नही है वो तो आत्मनिष्ठा तथा भगवान के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त करके ही उत्पन्न होती है । इन दोनों में जितनी न्यूनता रहती है, उतनी ही कमी पूर्णकाम भावना में रहा करती है । इसलिए भगवान के भक्त को दृढता के साथ इन दोनों को सिद्ध कर लेना चाहिए । इन दोनों में जितनी कमी रहती है, उतनी तो समाधि में भी बाधक बन जाती है । हाल में ही हमने एक हरिभक्त को समाधिस्थ किया था । उस स्थिति में उसे अतिशय तेज दिखायी पडा उस तेज को देखकर वह चीख - चिल्लाहट करने लगा और बोला कि मैं जल रहा हूँ । इसलिए समाधिवाले को भी आत्मज्ञान आवश्यक रहता है । यदि वह अपने स्वरुप को आत्मा न समझकर देह मानता है तो उसमें बहुत अपरिपक्वता रहती है । हमने तो उस हरिभक्त को समझाया कि तुम्हारा स्वरुप देह नहीं बल्कि आत्मा है । इस लाडकीबाई नाम तथा भाट की देह में तुम्हारा वास्तविक रुप नहीं है । अछेद्य तथा अभेध आत्मा ही तुम्हारा स्वरुप है । बाद में हमने उसे समाधि कराकर बताया कि गणपति के स्थान में चार पंखडीवाला जो कमल है वहाँ जाकर तुम अपने स्वरुप को देखो । जब समाधिवाला गणपति के स्थान में जाता है तब उसे वहाँ नाद सुनायी पडता है तथा प्रकाश दिखता है । उससे परे ब्रह्मा के स्थान में जाने पर उससे भी अधिक नाद सुनायी पडता है तथा अतिशय प्रकाश भी दिखता है । जब वह विष्णु के स्थान में जाता है तब उसे क्रमशः उससे भी अधिक नाद और तेज सुनायी और दिखायी पडता है । इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह ऊँचे-ऊँचे स्थान में जाता है त्यों-त्यों उसे अधिक नाद सुनायी पडता है और अधिकाधिक प्रकाश दिखायी पडता है । इस तरह समाधि में अतिशय तेज दिखायी पडता है तथा अत्यधिक नाद होता है और बहुत ज्यादा कडाका होता है, जिससे बडे से बडे धीरजवाले में भी कायरता आ जाती है । यद्यपि अर्जुन भगवान के अंशधर तथा महाशूरवीर थे, फिर भी वे भगवान के विश्वरुप को देखने में समर्थ नहीं हुए। वे बोले कि - हे महाराज मैं इस रुप को देखने में समर्थ नहीं हूँ । इसलिए आप अपने पूर्व - रुप के दर्शन कराइए । इस प्रकार समाधि में जब ऐसे समर्थ व्यक्ति को भी ब्रह्मांड फट जाने जैसे कडाके सुनायी पडें और जैसे समुद्र के अमर्यादित होने पर प्रचंड जल - प्रवाह को देखकर डर लगता है उसी तरह प्रचंड तेज को भी देखकर धैर्य नहीं रहता । इसलिए, अपने स्वरुप को देह से भिन्न समझना चाहिए । ऐसी जो समाधि होती है उसके दो प्रकार हैं । इनमें से पहला तो यह है कि प्राणायाम करने से प्राण का निरोध होता है और उसके साथ-साथ चित्त का भी निरोध हो जाता है । दूसरा प्रकार यह है कि चित्त का निरोध होने से प्राण का निरोध होता है । सब स्थानों से वृत्ति हटकर जब भगवान में जुड जाती है तभी चित्त का निरोध होता है । यह वृत्ति भगवान में तभी जुड पाती है जब सभी स्थानों से वासना मिटकर भगवान के स्वरुप की वासना होती है । तब किसी के भी द्वारा हटाये जाने पर यह वृत्ति भगवान से उसी प्रकार नहीं हट सकती, जिस तरह किसी कुएँ पर बीस रहट चलते हों और उनके जलप्रवाह भिन्न-भिन्न हों, जिनमें जोर नहीं होता, परन्तु यदि इन बीसों रहटों के प्रवाह को मिला दिया जाय, तो उसमें नदी के समान इतना तीव्र प्रवाह होने लगता है कि वह हटाने पर भी नहीं हटता । उसी प्रकार, जिसकी वृत्ति जब निर्वासनिक होती है तब उसका चित्त भगवान के स्वरुप में लग जाता है । जिसके चित्त में संसार के सुखों की वासना हो उसे श्रोत्र-इन्द्रियों द्वारा अनंत प्रकार के शब्दों में अलग-अलग वृत्ति फैल जाती है । उसी प्रकार, त्वचा-इन्द्रिय द्वारा हजारों प्रकार के स्पर्शों में वृत्ति फैल जाती है । इसी तरह नेत्रेन्द्रिय की वृत्ति, रसनेन्द्रिय की वृतिा, नासिका इन्द्रिय-वृत्ति तथा कर्मेन्द्रिय वृत्तियाँ भी क्रमशः हजारों तरह के रुपों, रसों अनेक प्रकार के गंधों और अपने-अपने विषयों में हजारो प्रकार से फैल जाती है । इस तरह उसका अंतःकरण दस इन्द्रियों द्वारा हजारों तरह फैल जाता है । वह जीव जब चित्त से भगवान का ही चिंतन करे, मन से भगवान का ही संकल्प करे, बुद्धि से भगवान के स्वरुप का ही निश्चय करे और अहंकार 'मैं आत्मा हूँ तथा भगवान का भक्त हूँ' ऐसा ही अभिमान करे तब उसकी वासना एक हुई समझनी चाहिए। और प्राण से चित्त का जो होता है वो तो निरोध अष्टांग योग द्वारा होता है । अष्टांग योग तो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि - संबंधी आठ अंगों से युक्त होता है । अष्टांग योग साधनरुप है और उसका फल भगवान में निर्विकल्प समाधि के रुप में होता है । जब ऐसी निर्विकल्प समाधि होती है, तब प्राण का निरोध होने से चित्त का निरोध - होता है । यदि चित्त निर्वासनिक होकर भगवान में लग जाता है तब उसके निरोध से प्राण का निरोध होता है । जिस प्रकार अष्टांग योग सिद्ध करने से चित्त का निरोध होता है । वैसे ही भगवान के स्वरुप में लग जाने से चित का निरोध होता है । इसलिए, जिस भक्त की चित्तवृत्ति भगवान के स्वरुप में लग जाती है, उसे अष्टांग योग बिना साधना के ही सिद्ध हो जाता है । इसलिए हमने आत्मनिष्ठा तथा भगवान के माहात्म्य ज्ञानरुपी जो दो साधन बताये हैं उनमें दृढता रखनी चाहिए, और जो वर्तमान धर्म है, वह तो भगवान की आज्ञा है, इसलिए उसका जरुर पालन करना चाहिए । जिस प्रकार ब्राह्मण का धर्म नहाना - धोना और पवित्रता पूर्वक रहना है इसलिए वह शूद्र के घर का पानी कभी नहीं पीता, उसी तरह जो सत्संगी है उसको भगवान की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, क्योंकि भगवान की आज्ञा का पालन करने से भगवान उस पर प्रसन्न होते हैं । भगवान के माहात्म्य - ज्ञान तथा वैराग्य सहित आत्मज्ञान, इन दोनों की अतिशय दृढता रखनी चाहिए तथा स्वयं में पूर्णकाम की भावना ऐसी समझनी चाहिए कि अब मुझमें कोई न्यूनता नहीं रही । समझकर निरन्तर भगवान की भक्ति करनी चाहिए । और ऐसी समझ के मद से उन्मत भी नहीं होना चाहिए तथा स्वयं में अकृतार्थता भी नहीं माननी चाहिए । यदि वह स्वयं में अकृतार्थता के भाव को मानता हो तो ऐसा समझ लेना चाहिए कि भगवान की कृपा तो हुई किन्तु क्षार भूमि में बोया गया बीज उगा ही नहीं और उन्मत होने पर जैसा - तैसा करने लगे तो यह समझना चाहिए कि अग्नि में जो बीज डाला वह जल गया । इसलिए, हमारी बतायी हुई बात को जो समझता है, उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रहती ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज अपने आसन पर पधारे ।
इति वचनामृतम् ।। २५ ।।