संवत् १८६ की पौष शुक्ल एकादशी को मध्याह्न के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सिर पर सफेद पाग बांधी थी, सफेद दुपट्टा धारण किया था, सफेद शाल ओढी थी, दोनों कानों पर गुलदावदी के बडे-बडे दो पुष्प डाले थे और पाग में पुष्पों का तुर्रा लगाया था । उनके मुखाराविन्द के सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी । ये परमहंस ताल पखावज लेकर कीर्तन कर रहे थे ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि ''अब कीर्तन करना बंद करें और हम वार्तारुपी जो कीर्तन करते हैं उसे सुने ।'' बाद में परमहंसों ने कहा कि - 'हे महाराज ! बहुत अच्छा, आप बात करें ।' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''भगवान का रसपूर्ण कीर्तन करते करते यदि एक मात्र भगवान के स्वरुप में ही रस की प्रतीती हो तो ठीक है, किन्तु यदि भगवान के स्वरुप को छोडकर किसी दूसरे ठिकाने पर रस प्रतीत हो जाय तो उसमें बडा दोष है, क्योंकि भक्त को जिस प्रकार भगवान के शब्द के प्रति प्रेम होता है और उसमें रस मालूम पडता है, उसी प्रकार गीतों और बाजों के शब्दों या स्त्रियों आदि के शब्दों में रस मालूम होता है तथा उससे लगाव होता है इसलिए, ऐसे भक्त को अविवेकी समझना चाहिए । यदि भगवान या उनके संत के वचनों में प्रतीत होनेवाले रस के समान ही ऐसी रसानुभूति अन्य विषय के शब्दो में होती हो तो यह मूर्खता है और उसका परित्याग करना चाहिए । ऐसी मूर्खता का त्याग करके एकमात्र भगवान के शब्दों में ही सुख मानना चाहिए । इस प्रकार का रसिक भक्त ही सच्चा है तथा शब्द के समान एकमात्र भगवान के स्पर्श का ही इच्छुक हो और अन्य स्पर्श को तो काला सांप तथा जलती अग्नि जैसा समझे वही रसिक भक्त सच्चा है । उसी तरह रुप भी भगवान का देखकर ही परमानंद प्राप्त करता है। किन्तु अन्य रुप को नरक का ढेर और सडा हुआ कुत्ता माननेवाला, भगवान के महाप्रसाद के रस से ही परमानंद प्राप्त करनेवाला, परन्तु विविध प्रकार के अन्य रसों का आस्वादन करने से आनंदित न होनेवाला, भगवान को समर्पित तुलसी, पुष्पहारों, विविध प्रकार की सुगंधवाले इत्रों और चंदनादि सुगंध को ग्रहण करने से अत्यंत आनंदित होनेवाला, किन्तु किसी अन्य विषयी जीव के इत्र चंदनादि चर्चित शरीर और उसके पहने हुए पुष्पहारों की सुगंध से प्रसन्न न होनेवाला रसिक भक्त ही सच्चा है । इस प्रकार भगवान संबंधी पंच विषयों से अतिशय प्रीति करनेवाला तथा जगत संबंधी पंच विषयों में अत्यन्त अभाव की भावना रखकर आचरण करनेवाला रसिक भक्त ही सच्चा है । रसिक भक्त होकर जिस तरह भगवान संबंधी विषय के योग से आनंद प्राप्त करता है उसी तरह यदि वह अन्य विषय संबंधी शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध के भोग से आनंदित होता है तो ऐसा रसिक भक्त झूठा है, क्योंकि जिस प्रकार भगवान के विषय में उसने आनंद प्राप्त किया है, उसी प्रकार उसे अन्य विषयों में भी आनंद मिला है ।' इसलिए, इस प्रकार की रसिकता तथा ऐसी उपासना को मिथ्या कर डालना चाहिए, क्योंकि भगवान तो झूठा नहीं है, लेकिन उस भक्त की भावना झूठी है। उसने जिस तरह अन्य पदार्थो को समझा, उसी प्रकार भगवान को भी माना, इसलिए उसकी भक्ति तथा रसिकता को मिथ्या कहा है । जैसे स्थूल देह और जाग्रतावस्था में पंचविषयों का विवेक बताया गया है वैसे ही सूक्ष्म देह तथा स्वप्नावस्था में सूक्ष्म पंचविषय रहते हैं । स्वप्न में जब भगवान की मूर्ति को देखकर भगवान संबंधी शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध से जैसा आनंद प्राप्त होता है वैसे का वैसा ही आनंद स्वप्न में यदि अन्य पंचविषयों को देखकर मिलता है तो उस भक्त की रसिकता मिथ्या है । यदि स्वप्न में केवल भगवान के संबंध से ही आनंद प्राप्त होता है और अन्य विषयों में अगर वमन किये हुए अन्न की तरह अभाव रहता हो तो वह रसिक भक्त सच्चा है । यदि ऐसा न जानता हो तो जो भगवान स्वप्न में दिखायी पडे, उनका स्वरुप तो सच्चा है, परन्तु उस भक्त को तो भगवान में रहनेवाले प्रेम के समान अन्य विषयों में भी प्रेम रहता है । इसलिए उसकी समझ दोषपूर्ण है । यदि एकमात्र भगवान के स्वरुप में ही अनुरक्ति रहे तथा अन्य विषयों में आसक्ति न रहे तो वही समझ सच्ची है । जब भक्त को केवल भगवान का ही चिंतन रहता है तब ऐसा चिंतन करते-करते वह शून्य भावको प्राप्त करता है और उस समय उस भक्त को भगवान की मूर्ति के सिवाय पिंड-ब्रह्मांड कुछ भी नहीं दिखायी पडता । ऐसे शून्य में भगवान की मूर्ति को देखते-देखते प्रकाश हो जाता है और उस प्रकाश में भगवान की मूर्ति दिखायी पडती है । इसलिए, यदि इस प्रकार केवल भगवान के स्वरुप में प्रीति रहती हो उसे पतिव्रता की भक्ति कहा जाता है । जब आप लोग रसमय कीर्तन करते हैं तब आँखे बंद कर हम भी ऐसा ही विचार करते हैं । हमारा विचार थोडा ही है, किन्तु उस विचारधारा में भगवान के सिवा अन्य कोई भी नहीं ठहर सकता । और भगवान के स्वरुप में ही रसमय प्रीति है, किन्तु उसमें यदि कोई विषय रुकावट डालने के लिए उपस्थित हो जाय तो हम उस विषय का सिर नष्ट कर डालते है, ऐसा हमारा दृढ विचार है । जिस प्रकार आप लोग कीर्तन की रचना करते हैं, उसी प्रकार हमने भी वार्तारुपी कीर्तन का संयोजन किया है और उसीका वर्णन आपके सामने किया है ।'' इस प्रकार श्रीजी महाराज ने स्वयं के माध्यम से अपने भक्तों के लिए यह बात कह दिखायी ।
इति वचनामृतम् ।। २६ ।।