वचनामृतम् २७

संवत् १८६ की पौष शुक्ल द्वादशी के दिन को श्रीजी महाराज सूर्योदय के पूर्व श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों की जगह पधारे थे । उन्होंने सिर पर सफेद फेंटा बाँधा था, श्वेत शाल ओढी थी और दुपट्टा धारण किया था । वे चबूतरे पर पश्चिम की और मुखकमल किये विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंस की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज आधी घडी तक तो अपनी नासिका के अग्रभाग की ओर देखते रहे और उसके बाद बोले कि - ''परमेश्वर के भजन की तो सबको इच्छा होती है, किन्तु समझ में भेद रहता है । इसलिए, जिसकी इस प्रकार की बुद्धि हो कि उसके हृदय में भगवान समस्त प्रकार से निवास करते हैं, उसका विवरण यह है कि जो यह समझता हो कि 'जिनके रखने से यह पृथ्वी स्थिर रहती है और हिलाये जाने पर हिलती है, जिनके द्वारा रखे जाने पर तारामंडल अधर में बना रहता है, जिनके बरसाने पर मेघमंडल से वर्षा होती है, जिनकी आज्ञा से सूर्य और चन्द्र का उदय एवं अस्त होता है, चन्द्रमा की कला बढती और घटती है, निर्बन्ध समुद्र जिनकी मर्यादा में रहता है, जल के बिन्दु में से मनुष्य उत्पन्न होता है और उसके हाथ, पैर, नाक, कान आदि दस इन्द्रियाँ निर्मित हो जाती है, आकाश में अधर में ही जल रख छोडा है तथा उसमें गडगडाहट होती है और बिजली चमकती है, ऐसे अनंत आश्चर्य हैं वो सब, मुझे जो मिलें हैं वो ही भगवान के द्वारा होते हैं । ऐसा समझे परन्तु प्रकट प्रमाण भगवान के सिवा अन्य कोई इस आश्चर्य का करनेवाला है, ऐसा माने नहीं तथा पूर्व में जो-जो आश्चर्य हुए हैं, अभी जो हो रहे हैं और भविष्य में जो होंगे, उन सभी के कर्ता, मुझे प्रत्यक्ष रुप से मिले जो भगवान उसीके द्वारा ही हैं,' ऐसा समझे और जो स्वयं ऐसा माने कि चाहे कोई मुझ पर धूल डाले, चाहे कोई कितना ही अपमान करे, चाहे कोई हाथी पर बैठावे, और चाहे कोई नाक-कान काटकर गधे पर बैठावे, ऐसी क्रियाओं में भी मेरा समान भाव है ।' तथा जिसे रुपवती यौवन सम्पन्न स्त्री या बदसूरत औरत या वृद्ध स्त्री में समभाव रहता है तथा जो स्वर्ण के ढेर या पत्थरों के ढेर, दोनों को ही एक समान समझता है, इस प्रकार के ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि अनेक शुभगुणों से सम्पन्न भक्त के हृदय में भगवान निवास करते हैं । बाद में ऐसा भक्त भगवान के प्रताप से अनंत प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है तथा असंख्य जीवों का उद्धार करता है । और इतना सामर्थ्य होने पर भी वह अन्य जीवों द्वारा किये गये मान एवं अपमान को सहन करता है । यह भी एक बडे सामर्थ्य की बाद है क्योंकि समर्थता होने पर भी इतनी सहनशीलता रखना किसी से नहीं हो पाती । इस प्रकार की सहिष्णुता रखनेवाले को अत्यन्त महान समझना चाहिए । और वो समर्थता कैसी तो ऐसे भक्त के नेत्रों द्वारा भगवान स्वयं देखते हैं । इसलिए ब्रह्मांड में जितने प्राणी हैं, उन सबके नेत्रों को प्रकाशवान करने में वे समर्थ होते हैं । उनके पैरों से भगवान चलते हैं । इसलिए वे समस्त जीवों के पैरों को चलने की शक्ति का पोषण करने में समर्थ होते हैं । इसी प्रकार, उस संत की समस्त इन्द्रियों में भगवान का निवास रहा है इसलिए संत ब्रह्मांड में समस्त जीवों की इन्द्रियों को प्रकाश प्रदान करने में समर्थ होते हैं । अतः ऐसे संत समस्त जगत के आधार-रुप हैं । वे तुच्छ जीवों द्वारा किये गये अपमान को सहन करते हैं । यह उनकी अतिशय महानता है । इस प्रकार की क्षमाभावना रखनेवाला ही अत्यन्त महान है । जो आँखें दिखाकर अपने से गरीब व्यक्तियों को डराता है और मन में यह समझता है कि मैं बडा आदमी हो गया हूँ', वह बडा नहीं है या जगत में अपनी सिद्धता दिखाकर लोकों को डरानेवाले जो जीव हैं, वे भगवान के भक्त नहीं, बल्कि माया के जीव है और यमपुरी जाने के अधिकारी हैं । ऐसे लोगों का जो बडप्पन है, वह केवल संसार के मार्ग में है । जिस प्रकार, संसार में सवारी के लिए घोडा नहीं रखनेवाले की अपेक्षा में पांच घोडे रखनेवाले को बडा माना जाता है, उसी तरह जिस व्यक्ति के पास ज्यों-ज्यों अधिक सम्पत्ति हो जाती है त्यों-त्यों सांसारिक व्यवहार में वह बहुत बडा आदमी कहलाता है, परन्तु भगवान के भजन में यह व्यक्ति बडा नहीं है । जिसकी मति ऐसी हो कि 'यह स्त्री तो अतिशय रुपवती है, यह वस्त्र तो बहुत बढिया है, यह महल तो बहुत अच्छा है, यह तुम्बडा तो बहुत अच्छा है और यह पात्र तो बहुत अच्छा है, ऐसे गृहस्थ तथा भेखधारी सभी तुच्छ बुद्धि वाले हैं ।' तब आप कहेंगे कि उनका कल्याण होगा या नहीं ? कल्याण तो सत्संग में रहनेवाले पामर जीव का भी हो जाता है, परन्तु पूर्वोक्त साधुता उसमें किसी भी तरह नहीं आ पाती और पहले बताए गए संत के गुण भी उसमें कभी नहीं आते क्योंकि वह सुपात्र नहीं हुआ ।' इस प्रकार वार्ता करके तथा 'जय सचिदानंद' कहकर श्रीजी महाराज दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पधारे ।

इति वचनामृतम् ।। २७ ।।