वचनामृतम् २८

संवत् १८६ की पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे और उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं की भोजन की पंक्ति लगी हुई थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''जिन सत्संगी का सत्संग में से पतन होनेवाला हो, उसमें अस्दवासना की वृद्धि होती है । उसमें पहले तो दिन-प्रतिदिन सत्संगी मात्र के प्रति दोष-भावना उत्पन्न हो जाती है । तब यह अपने हृदय में ऐसा समझने लगता है कि 'समस्त सत्संगी तो समझदार नहीं हैं और मैं बुद्धिमान हूँ ।' इस प्रकार वह स्वयं को सबसे अधिक महत्वशाली समझता है और रात-दिन अपने हृदय में घबराहट महसूस करता रहता है और दिन में किसी भी जगह चैन से नहीं बैठ पाता । यदि वह रात में सोये तो उसे नींद नहीं आती तथा उसका क्रोध तो कभी भी मिटता ही नहीं और आधी जली हुई लकडी की तरह उसका हृदय सुलगता रहता है । जिसकी दशा इस प्रकार की हो जाय, उसे ऐसा समझना चाहिए कि 'सत्संग में से इसका पतन होनेवाला है ।' ऐसी स्थिति में वह चाहे कितने ही दिन सत्संग में क्यों न रहे, उसे किसी भी दिन सुख नहीं मिलता और अंत में उसका पतन हो जाता है । सत्संग में जिसकी प्रगति होनेवाली हो, उसकी शुभवासना में वृद्धि हो जाती है तथा उसके हृदय में दिन-प्रतिदिन सत्संगी मात्र का गुण ही आता रहता है और वह समस्त हरिभक्तों को बडा समझने लगता है तथा स्वयं को न्यून समझता हैं । तब उसके हृदय में आठों प्रहर सत्संग का आनंद छाया रहता है । जब ऐसे लक्षण उत्पन्न हो जायें तब समझना चाहिए कि  'शुभवासना में वृद्धि हो गयी है ।' ज्यों-ज्यों वह अधिक से अधिक सत्संग करता है त्यों-त्यों उसकी प्रगति होती जाती है तथा अतिशय महत्ता को प्राप्त होता है ।'' इस प्रकार की बात करके श्रीजी महाराज ने 'जय सच्चिदानंद' कहकर अपने आसन पर पधारे ।

इति वचनामृतम् ।। २८ ।।