वचनामृतम् २९

संवत् १८६ की पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिम द्वार के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी, माथे पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफेद पुष्पों के हार पहने थे और पाग में श्वेत पुष्पों का तुर्रा लटकता था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधु तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी ।
       
तत् पश्चात श्रीेजी महाराज बोले कि - ''प्रश्न पूछिए ।'' तब गोपालानंद स्वामी ने पूछा कि - ''धर्म, ज्ञान, वैराग्य सहित भक्ति का बल वृद्धि को किस प्रकार प्राप्त होता है ?'' तब श्रीेजी महाराज बोले कि - ''उसके चार उपाय हैं, जिनमें से एक तो पवित्र देश, दूसरा पवित्र काल, तीसरी शुभक्रिया और चौथा सत्पुरुष का संग है । उनमें क्रिया की सामर्थ्य तो थोडी रहती है लेकिन देश, काल और संग के कारण विशेष रहता है क्योंकि जहाँ पवित्र देश, पवित्र काल और आप जैसे संत का समागम रहता है, वहाँ क्रिया शुभ ही होती है । यदि सिन्ध जैसा अपवित्र देश तथा अशुभ काल हो और वेश्याओं, भडुवों या मद्यपान और मांस भक्षण करनेवालों का संग हो जाय तो क्रिया भी अशुभ होती है । इसलिए, पवित्र देश में रहना, विद्यमान अशुभ काल से इधर-उधर चले जाना और संग भी प्रभु के भक्तों एवं पंचव्रतयुक्त ब्रह्मवेत्ता साधु का ही करना चाहिए। तभी हरिभक्त को परमेश्वर की भक्ति का बल अतिशय वृद्धि को प्राप्त होता है। इस प्रश्न का यही उत्तर है ।''

इसके बाद मुक्तानंदस्वामी ने पूछा कि - ''हे महाराज ! किसी भी हरिभक्त का अंतःकरण पहले तो मलिन-सा रहता है और बाद में अत्यन्त शुद्ध हो जाता है, यह क्या उसके पूर्व संस्कार के कारण ऐसा हुआ या भगवान की कृपा से ऐसा हुआ या इस हरिभक्त के पुरुषार्थ से हुआ ?'' तब श्रीजी महाराज महाराज बोले कि - ''पूर्व जन्म के संस्कार के अनुसार, जो अच्छा या बुरा फल मिलता है, उसकी जानकारी तो समस्त जगत को होती है, जैसे भरतजी को मृग में आसक्ति हुई । ऐसे ठिकाने पर प्रारब्ध को महत्त्व दिया जाता है, जैसे कोई कंगाल हो और उसे बडा राज्य मिल जाय । यदि ऐसा हो तो उसे समस्त जगत जान जाता है । तब उसे तो प्रारब्ध ही मानना चाहिए ।'' इसके बाद श्रीजी महाराज ने अपनी बात कही कि - ''हमने जो-जो साधनाएँ की थीं, उनमें किसी भी तरह देह रहती ही नहीं है । लेकिन उनमें भी देह जीवित रह गयी तो वह प्रारब्ध ही है । वह क्या तो जब हम श्री पुरुषोत्तमपुरी में निवास करते थे, तब कई मास तक वायुभक्षण करके ही रहे थे तथा एक बार तो हमने तीन-चार कोस की पटवाली नदी में अपना शरीर बहता हुआ छोड दिया था और शीतकाल, ग्रीष्मकाल और वर्षाकाल में छाया के बिना मात्र एक कौपीन धारण करके रहते थे तथा झाडी में हाथियों और जंगली बाघों के साथ घूमते-फिरते थे । हमने ऐसे-ऐसे अनेक विकट स्थानों में भ्रमण किया तो भी किस तरह देह नहीं छूटी । ऐसे स्थान पर तो प्रारब्ध को ही महत्व देना चाहिए । संदीपनी नामक ब्राह्मण का पुत्र नरक से मुक्त हो गया और पांच वर्ष के ध्रुवजी जब भगवान की स्तुति करने लगे, तब वेदादि के अर्थो की सहज ही अनुभूति हो गयी । इस प्रकार अतिशुद्ध भाव से प्रसन्न हुए भगवान के एकान्तिक साधु के वरदान से बुद्धि यदि पवित्र हो जाय, तो उसे भगवान की कृपा ही समझना चाहिए । यदि पवित्र साधु का संग हो जाय और स्वयं निजी विचार के अनुसार जो पवित्र हो जाय, उसे तो पुरुषार्थ कहना चाहिए ।'' इस प्रकार बात करके श्रीजी महाराज 'जय सच्चिदानंद' कहते हुए हँसते-हँसते अपने आसन पर पधारे ।

इति वचनामृतम् ।। २९ ।।