संवत् १८६ की पौष कृष्ण प्रतिपदा के दिन संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के निकटवर्ती उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सफेद दुपट्टा धारण किया था, श्वेत चादर ओढी थी, सिर पर सफेद फेंटा बाँधा था तथा श्वेत पुष्पों के हार पहने थे । उनके दोनों कानों में श्वेत पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे । उन्होंने सफेद फूलों के बैरखे पहने थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी और मुनि मंडल कीर्तन कर रहे थे ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''अब प्रश्नोत्तर कीजिए ।'' तब श्रीजीमहाराज से दीनानाथ भट्ट ने पूछा कि - ''हे महाराज ! किसी समय तो हजारों संकल्प होते हैं किन्तु मन में उनकी आसक्ति नहीं होती और किसी समय तो अल्प संकल्प होने पर भी उनकी इच्छा मन में ठहर जाती है, उसका क्या कारण है ? भगवान के भक्त के लिए मन के इन संकल्पों से निवृत्त होने का कौन-सा उपाय है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''इसका कारण तो गुण है । जब तमोगुण प्रधान होता है और मन में उस समय जो संकल्प होता है तब सुषुप्ति जैसी अवस्था रहती है । इस कारण उसमें संकल्प की अवस्था रहती ही नहीं है। जब सतोगुण रहता है तब प्रकाश जैसा होता है । उस समय जो संकल्प हो जाय, उन्हें ज्ञान विचार से मिथ्या कर देता है, इसलिए उन संकल्पों की भी अवस्था नहीं रहती । जब रजोगुण का अस्तित्व रहता है, तब जो संकल्प हो जाय, उसकी अवस्था मन में बनी रहती है । इसलिए आसक्ति रहती है या नहीं, उसका कारण तो गुणों की वृत्ति है । यदि पुरुष बुद्धिमान है तो वह इस बात पर विचार करता है और जिस समय जो संकल्प होता है तो उस समय उसे देखने पर स्वयं रहनेवाले प्रधान गुण को देख लेता है । घडी-घडी और पल-पल में जो सूक्ष्म संकल्प होते हैं, उनकी जानकारी तो किसी को नहीं मिल पाती । यदि आप जैसा कोई बुद्धिमान हो तो दिनभर में दो, तीन, चार स्थूल संकल्प होते हैं और वे उसे दिखायी पडते हैं । जिस गुण की प्रधानता के कारण स्वयं में जो संकल्प होते हैं, उनके सामने उसे दृष्टि रखनी चाहिए तथा सत्संग में भगवान की जो वार्ता होती है उसका यदि धारण एवं चिंतन करता रहे तो इस सत्संग के प्रताप से ऐसा होता है कि उसे जिस गुण से संकल्प होते हो उनसे उन संकल्पों की निवृत्ति हो जाती है और स्थिर बनकर परमेश्वर के अखंड स्वरुप का चिंतन होता रहता है और सत्संग किये बिना कोटि साधन होने पर भी उसे संकल्प तथा रजोगुण आदि गुणों से छुटकारा नहीं मिल पाता । यदि कोई निष्कपट भाव से सत्संग करता है और परमेश्वर की बात को हृदयंगम करके उस पर विचार करता है तो उसका यह मलिन संकल्प नष्ट हो जाता है । इस प्रकार सत्संग का प्रताप तो अतिशय महान है । जो अन्य साधन है तो वे सत्संग के तुल्य नहीं होते, क्योंकि किसी भी साधन से जिस संकल्प की निवृत्ति नहीं होती, उसकी निवृत्ति सत्संग में होती है । इस कारण को दृष्टिगत रखते हुए जिसे रजोगुण संबंधी मलिन संकल्प विनष्ट करने हों, उसे मन, कर्म तथा वचन द्वारा निष्कपट भाव से सत्संग करना चाहिए । तभी सत्संग के प्रताप से उस संकल्प की निवृत्ति हो जाएगी ।''
इति वचनामृतम् ।। ३० ।।