संवत् १८६ की पौष कृष्ण द्वितीया के दिन संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास के पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में गद्दी - तकिया रखाकर विराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे ।
उस समय योगानंदमुनि ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान के भक्त दो प्रकार के होते हैं । उनमें से एक तो निवृत्ति मार्ग को अपनाता है और किसी को भी अपने वचन से दुःखी नहीं करता । अन्य भक्त परमेश्वर और उनके भक्त की अन्न, वस्त्र एवं पुष्पादि से सेवा करता रहता है, किन्तु वचन से तो किसी को दुःखी करता है । इस प्रकार के दोनों भक्तों में से कौन सा भक्त श्रेष्ठ है? फिर श्रीजी महाराज ने इसका उत्तर नहीं दिया और मुक्तानंदस्वामी तथा ब्रह्मानंद स्वामी को बुलवाकर उन्हें यह प्रश्न सुनाया । इसके पश्चात उन्होंने उनसे कहा कि इसका उत्तर आप दीजिए । तब इन दोनों ने उत्तर दिये कि - 'एक ऐसा भक्त हो, जो अपने वचन द्वारा किसी को दुःखी जरुर करता है, किन्तु भगवान या संत की सेवा करता रहता है, इसलिए वह श्रेष्ठ है, परन्तु निवृत्ति मार्ग पर चलनेवाला भक्त यद्यपि किसी को दुःख नही पहुँचता फिर भी वह भगवान तथा संत की कोई सेवा नहीं करता, इसलिए उसे असमर्थ जैसा जानना चाहिए तथा सेवा - चाकरी करनेवाले को तो भक्तिवाला कहा जाना चाहिए इसलिए भक्तिवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है ।' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह उत्तर उचित है । जो ऐसी भक्तिवाला हो और भगवान के वचन में दृढत के साथ रहा हो और उसमें थोडा-सा भी दोष दिखायी पडे उसे देखकर यदि उसे उसका अवगुण माना जाय तो यह एक बडा दोष रहेगा । अगर इस प्रकार दोष देखा गया तब तो जीवों के कल्याण के लिए परमेश्वर के देहधारण करने में भी दोष देखनेवाले को कमी जरुर दिखायी पडेगी और भगवान के बडुत बडे भक्तों में भी उसे दोष दिखाई पडेगा । यदि दोष देखनेवाले ने जो कमी दिखायी है उससे क्या परमेश्वर का अवतार या संत कल्याणकारी नहीं है वे तो तो कल्याणकारी ही है, किन्तु किसकी दुर्बुद्धि है उसे तो सब कुछ उल्टा ही दिखायी पडता है । जैसे शिशुपाल ऐसा ही कहता था कि पांडव तो वर्णसंकर हैं और पाँच आदमियों की केवल एक ही स्त्री है, इसलिए वे अधार्मिक भी हैं तथा कृष्ण भी पाखंडी है, क्योंकि उसने जन्मकाल से पहले तो एक स्त्री को मार डाला, इसके बाद बगुले और बछडे का भी वध कर डाला और मधुमक्खी का छत्ता उखाडने के कारण उसे मधुसूदन भी कहा जाता है । लेकिन उसने मधु नामक किसी दैत्य को नहीं मारा फिर भी वर्णशंकर पांडवों ने उसकी पूजा की, इससे वह भगवान हो गया ? इस प्रकार आसुरी बुद्धिवाले शिशुपाल ने भगवान के भक्तों पर दोषारोपण किया परन्तु भगवान के भक्तों को तो ऐसा कोई भी दोष नहीं दिखाई पडा । इसलिए जो ऐसा अवगुण बताता है, उसे तो आसुरी बुद्धिवाला समझना चाहिए ।' तब मुनियों ने पुनः यह प्रश्न किया कि - 'हे महाराज ! जो महान प्रभुभक्त होते हैं उनमें तो कोई अवगुण दिखायी नहीं देते, परन्तु जैसा - वैसा हरिभक्त हो तो उसमें तो अवगुण दिखायी देता है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - आप जैसा समझते हैं, वैसी लघुता और महानता नहीं होती । महानता तो प्रत्यक्ष भगवान के निश्चय से तथा भगवान की आज्ञा पालन करने से होती है । जो इन दोनों बातों पर ध्यान नहीं देता, वह व्यावहारिक रुप से चाहे कितना ही बडा हो, तो भी वह छोटा ही रहता है और पहले बतायी गयी महत्ता तो आजकल अपने सत्संग में सब हरिभक्तों में है, क्योंकि आजकल जो हरिभक्त है, वे ऐसा समझते हैं कि अक्षरातीत भगवान पुरुषोत्तम हमें प्रत्यक्ष रुप से मिले हैं और हम कृतार्थ हैं । ऐसा समझकर वे प्रत्यक्ष भगवान की आज्ञा में रहते हुए भगवान की भक्ति करते हैं । इसलिए, ऐसे हरिभक्तों का कोई भी देह - स्वभाव देखकर उनका अवगुण नहीं समझना चाहिए । जिसे अवगुण देखने का ही स्वभाव होता है, उसकी तो आसुरी बुद्धि हो जाती है ।''
इति वचनामृतम् ।। ३१ ।।