संवत् १८६ की पौष कृष्ण तृतीया के दिन प्रातःकाल श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सिर पर श्वेत पाग बांधी थी, सफेद चादर ओढी थी, ललाट पर केसर मिश्रित चंदन लगाया था, सफेद पुष्पों का हार पहना था और पाग में सफेद पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी और मुनि कीर्तन कर रहे थे ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'सुनिये, एक प्रश्न करते हैं । तब मुनियों तथा हरिभक्तों ने कहा कि - 'हे महाराज ! पूछिये' तत् पश्चात श्रीजी महाराज बहुत देर तक विचार करने के बाद बोले कि - 'इस संसार में विषयी जीव पंचविषयों के बिना नहीं रह सकते । जिस प्रकार इन विमुख जीवों के लिए पंच विषय हैं, उसी तरह भक्तों के लिए भी पंच विषय हैं, परन्तु उनमें भेद है और वह यह है कि विषयी जीव तो बिना भगवान के लौकिक विषयों को उपयोग करते हैं, किन्तु भगवद् भक्तों के लिए तो भगवान की कथा सुनना ही श्रोत्रा का विषय है, भगवान के चरणारविन्दों या संत की चरणरज का स्पर्श करना त्वचा का विषय है, भगवान या संत का दर्शन करना नेत्र का विषय है, भगवान का प्रसाद लेना और उनका गुणगान करना जिह्वा का विषय है तथा भगवान को अर्पित पुष्पादि की सुगंध लेना घ्राण । इस प्रकार विमुख जीवों तथा हरिभक्तों के विषयों में इतना अंतर होता है । इस प्रकार के विषयों के बिना तो हरिभक्तों से भी नहीं रहा जाता । नारद सनकादिक अनादि भक्तों से भी इन पंच विषयों के बिना नहीं रहा जाता । वे समाधि में अधिक समय तक रहते हैं तथा उसमें जागृत होकर भगवान के कथाकीर्तन श्रवणादि विषयों को भोगते हैं । जिस प्रकार पक्षी अपना दाना - पानी जुटाने के लिए अपने घोंसलों से बाहर निकलते हैं और पेट भरने के बाद रात्रि के समय अपने - अपने घोंसले में जाकर आराम करते हैं, परन्तु कभी भी अपने स्थानों को भूलकर दूसरों के ठिकाने पर नहीं जाते, उसी प्रकार भगवद् भक्त भगवान के कथाकीर्तन श्रवणादि रुपी दाना-पानी ग्रहण करने के बाद भगवान के स्वरुप में अपने स्थान में जाकर विश्राम करते हैं । जैसे पशु-पक्षी सभी जीव अपना खाना खाने के बाद अपने - अपने स्थानों में जाकर आराम करते हैं वैसे ही ये मनुष्य भी अपने कार्यों के लिए देश - विदेश जाते हैं, परन्तु जब अपने घर वापस आते हैं तब शांतिपूर्वक बैठते हैं । जो ये सब दृष्टान्त सिद्धान्त कहे गये हैं उन पर हम आप सब हरिभक्तों से प्रश्न पूछते हैं कि जिस प्रकार विमुख जीव लौकिक पंचविषयों के बंधन में पडे हुए हैं और उनके बिना उसे पल मात्र भी नहीं रहा जाता, उसी प्रकार आप भगवान की कथा - वार्ता के श्रवणादिरुपी विषयों में दृढता के साथ लिप्त होकर उनके विषयी हुए हो कि नहीं ? और एक अन्य प्रश्न पूछते हैं कि जिस प्रकार पक्षी अपना दाना - पानी लेने के बाद अपने घोंसले में आ जाता है, उसी प्रकार क्या आप सब भगवान के स्वरुप रुपी अपने निवास पर विश्राम करते हैं या अन्य स्थानों पर जहाँ-तहाँ आराम करते हैं । जैसे मालिक का पशु चरागाह में चरने के बाद शाम को अपने खूंटे पर आ जाता है, किन्तु जो निरंकुश पशु होता है, वह खूंटे पर नहीं आता और जिस तिस का खेत खाकर जहाँ-तहाँ बैठा रहता है, फिर कोई उसे लाठी मारता है या विघ्न आता है तो उसे मार डालता है, वैसे ही क्या आप मालिक के पशु की तरह अपने खूंटे पर आते हो या उस निरंकुश पशु के समान किसी का खेत खाकर और जहाँ-तहाँ बैठकर विश्राम करते हैं ? जो बडे-बडे हों उन्हें अपने अंतःकरण में विचार करके इन प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए ।' बाद में मुनि तथा हरिभक्त सभी पृथक रुप से बोले कि - 'हे महाराज ! हम भगवान की कथा एवं कीर्तनादि के विषयी भी हुए हैं और भगवान के मूर्तिरुपी घोंसले तथा खूंटे को छोडकर दूसरे निवास पर रहते भी नहीं है ।' इस बात को सुनकर श्रीजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
उसी दिन मध्याह्न के ढलते श्रीजी महाराज दादाखाचर के राजभवन के बीच नीम वृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे और उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । तब श्रीजी महाराज श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के सम्मुख विराजमान थे तथा मुनि कीर्तन कर रहे थे ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि अब प्रश्नोत्तर का प्रारम्भ करिए। तब दीनानाथ भट्ट तथा ब्रह्मानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'किसी समय तो भगवान के भक्त के हृदय में भगवान का भजन-स्मरण सानंद होता है और उनकी मूर्ति का चिन्तन होता है तथा किसी समय अन्तस्तल विचलित हो जाता है तथा भजन-स्मरण का सुख नहीं मिल पाता, इसका क्या कारण है ?
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'उसे भगवान की मूर्ति को धारण करने की युक्ति नहीं आती । तब मुक्तानंदस्वामी ने पूछा कि - युक्ति की जानकारी किस प्रकार हो सकती है ? पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'युक्ति तो यह है कि जब अंतःकरण में गुणों का प्रवेश होता है और सतोगुण रहता है तब हृदय निर्मल हो जाता है तथा भगवान का भजन स्मरण आनंदपूर्वक होता है, किन्तु रजोगुण के रहने पर अंतःकरण डगमगा जाता है, अनेक संकल्प-विकल्प होते रहते हैं तथा भजन-स्मरण भी अच्छी तरह नहीं हो पाता । जब तमोगुण रहता है तब तो अंतःकरण शून्य हो जाता है । इसलिए भजन करनेवाले पुरुष को गुणों का ही अवलोकन करना चाहिए । जिस समय सतोगुण रहता है तब भगवान की मूर्ति का ध्यान करना चाहिए । तमोगुण के रहने पर कोई भी संकल्प - विकल्प नहीं होता और शून्य - सा रहता है । उस समय भी भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए । जब रजोगुण रहता है तब अनेक संकल्प - विकल्प होते रहते हैं । इसलिए, भगवान का ध्यान तब भी नहीं करना चाहिए उस समय तो ऐसा समझ लेना चाहिए कि मैं तो संकल्प से भिन्न हूँ और उसका जाननेवाला हूँ तथा मुझमें अंतर्यामीरुप से पुरुषोत्तम भगवान सदैव विराजमान रहते हैं । जब रजोगुण का वेग मिट जाय तब भगवान की मूर्ति का ध्यान करना चाहिए । जब रजोगुण रहता है तब अनेक संकल्प - विकल्प होते हैं, किन्तु उन्हें देखकर उद्विग्न नहीं होना चाहिए, क्योंकि अंतःकरण तो छोटा बालक, बंदर, कुत्ते और बच्चे को खिलानेवाले के सदृश होता है । इस अंतःकरण का स्वभाव तो ऐसा है कि बिना प्रयोजन के ही कुचेष्टा करता रहता है । अतएव, जिसे भगवान का ध्यान करना हो, उसे अंतःकरण के संकल्प - विकल्पों को देखकर व्यग्र नहीं होना चाहिए, अंतःकरण के संकल्प को मानना भी नहीं चाहिए तथा स्वयं को वे अपने अंतःकरण को पृथक समझना चाहिए और अपनी आत्मा को अलग मानकर भगवान का भजन करना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।। ३२ ।।