वचनामृतम् ३४

संवत् १८६ के पौष महीने की कृष्ण एकादशी के दिन प्रातः काल श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी दार के कमरे के बरामदे में पलंग पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द किए विराजमान थे । उन्होंने सफेद दुपट्टा  धारण किया था, श्वेत शाल ओढी थी, शिर पर सफेद पाग बाँधी थी, फूलों का हार पहना था और पाग में पुष्पों व रेशम के तुर्रे लटकते रखे थे और दोनों कानों के ऊपर पुष्पगुच्छ लगाये थे । उस समय उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी और मुनिगण वाद्ययंत्र बजाकर कीर्तन कर रहे थे ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'अब कीर्तन बंद करके प्रश्नोत्तर का प्रारंभ करिए ।' तब ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा - 'समस्त सुखों के धाम और सबसे परे रहनेवाले परमेश्वर में जीव की वृत्ति नहीं लगती, किन्तु मायिक एवं नाशवान तुच्छ पदार्थो में ही जीव की वृत्ति लिप्त रहती है, उसका क्या कारण है ?' इसका उत्तर मुक्तानंद स्वामी देने लगे परन्तु वह यथार्थ रुप में न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले - 'हम इस प्रश्न का उत्तर देते हैं सुनिए ! परमेश्वर ने जबसे इस सृष्टि की रचना की है तबसे ऐसा यंत्र लगाया है कि परमेश्वर को फिर से परिश्रम न करना पडे तथा संसार की जो वृद्धि करनी है, वह अपने-आप होती रहे, ऐसा चक्र चला रखा है । इसलिए, पुरुष को स्त्री से और स्त्री को पुरुष से सहज प्रेम हो जाता है तथा स्त्री से उत्पन्न होनेवाली संतान से भी सहज भाव से स्नेह हो जाता है, इसलिए वह स्नेहरुप हीभगवान की माया ही है । उस माया के प्रवाह में जो न बहे, उसकी वृत्ति ही भगवान के स्वरुप में रहती है । इसलिह, भगवान के भक्त को मायिक पदार्थो में दोष बुद्धि रखकर वैराग्य को प्राप्त करना चाहिए और भगवान को सर्व सुखमय जानकर परमेश्वर में ही अपनी वृत्ति रखनी चाहिए। यदि मायिक पदार्थो में वैराग्य की भावना नहीं रखी गई और भगवान के स्वरुप से विच्छिन्नता हो गई तो शिव, ब्रह्मा तथा नारद आदि जैसे समर्थ मुक्त होने पर भी मायिक पदार्थों की ओर आकृष्ट हो जाते हैं । इस कारण भगवान को छोडकर मादक पदार्थों का संग करने से उनमें जीव की वृत्ति लिप्त हो जाती है । इसलिए, परमेश्वर के भक्त को भगवान के सिवा अन्य किसी भी वस्तु से लगाव नहीं रखना चाहिए ।
         
तत् पश्चात् श्रीजी महाराज बोले - 'अब प्रश्न करने के लिए मुक्तानंद स्वामी की बारी आई है, इसलिए प्रश्न कहिए ।' फिर मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'जीव के लिए भगवान की प्राप्ति अतिदुर्लभ है । यदि भगवान की प्राप्ति हो गई तब तो उससे बढकर और कोई भी लाभ नहीं हो सकता और उससे बडा अन्य आनंद भी नहीं है, फिर ऐसे महान आनंद को छोडकर जीव तुच्छ पदार्थों के लिए कष्टों को क्यों सहन करता है ? यह प्रश्न है ।' तब श्रीजी महाराज बोले - 'अच्छा, हम इसका उत्तर देते हैं और वह यह है कि जब जीव परमेश्वर के वचनों को छोडकर इधर उधर भटकता है तब वह क्लेश को प्राप्त करता है । यदि वह इन वचनों के अनुसार आचरणशील रहता है तब तो वह जैसा भगवान का आनंद है वैसा आनंद में रहेता है और भगवान के आनंद की प्राप्ति हो जाती है । वह भगवान के वचनों का जितना लोप करता है, उतना ही क्लेश उसे रहता है । इसलिए, त्यागी के लिए जो जो आज्ञा दी गई है उसके अनुसार ही उसे रहना चाहिए । और गृहस्थ को जो-जो आज्ञाए दी गई है उस प्रकार गृहस्थ को रहना चाहिए । इस प्रकार गृहस्थ को भी आज्ञाअनुसार रहना चाहिए । उसमें जितना ही अंतर रहता है उतना ही क्लेश रहता है । त्यागी को तो आठ प्रकार से स्त्री का त्याग रखना चाहिए, तभी उसके ब्रह्मचर्य - व्रत को पूर्ण कहा जा सकता है । उसमें जिसको जितनी कमी रहती है उतना ही उसे क्लेश होता है । गृहस्थ के लिए भी परनारी का त्याग करते हुए ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन करने की बात कही गयी है और उसे व्रत के दिन अपनी स्त्री का भी संग नहीं करना चाहिए । ऋतुकाल में ही उसका संग करना चाहिए इत्यादि जो-जो नियम त्यागी और गृहस्थ के लिए बताये गए हैं उनमें जिसको जितनी कमी रहती है उतना ही उसे क्लेश रहता है । जो जीव भगवान से विमुख है उसके सम्मुख जो सुख-दुःख उपस्थित होते हैं, वे तो उसके निजी कर्मानुसार आते हैं । भगवान के भक्त को तो जितना दुःख मिलता है वह तुच्छ पदार्थों के लिए उसके द्वारा भगवान की आज्ञा का उल्लंघन किये जाने के कारण होता है और उसे जितना सुख मिलता है वह भगवान की आज्ञा का पालन करने से प्राप्त होता है ।' 
                           
इति वचनामृतम् ।। ३४ ।।