संवत् १८६ के पौष महीने की कृष्ण त्रयोदशी के दिन श्रीजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे, कंठ में श्वेत तथा पीले पुष्पों का हार धारण किया था, दोनों कानों पर श्वेत पुष्पों के गुच्छे डाले थे, पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था । उन्होंने कर्णिकार के लाल पुष्पों का तुर्रा रखा था और वे दाहिने हाथ में सफेद फूलों का गोला घुमा रहे थे । इस प्रकार शोभायमान होते हुए वे अपने भक्तजनों को आनंदित करते हुए विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''जिसने संसार छोड दिया और त्यागी का भेख धारण किया है, उसे यदि परमेश्वर के स्वरुप को छोडकर असत्य पदार्थो में प्रीति रहती है तो उसे कैसा समझना चाहिए ? उसे तो बडे धुनी मनुष्य के सामने कंगाल आदमी' जैसा समझना चाहिए । जैसे कंगाल मनुष्य को पहनने के लिए वस्त्र न मिलते हों और वह कूडाखाने में से दाने बीनकर खाता हो तो स्वयं को पापी समझता है और अन्य धनी मनुष्य भी उसे पापी समझते हैं 'इसने पाप किये होंगे, जिससे इसे अन्न-वस्त्र नहीं मिलते,' वैसे ही त्यागी होकर भी जो पुरुष अच्छे-अच्छे वस्त्रादि पदार्थो को एकत्र करके रखता है और उनमें तृष्णा भी अधिक रखता है तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्त में प्रीति नहीं रखता, ऐसे त्यागी को तो बडे एकान्तिक साधु को कंगाल मनुष्य के समान पापी समझते हैं, क्योंकि पापी होने के कारण ही उसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति में प्रीति नहीं होती है और परमेश्वर को छोडकर अन्य पदार्थों से लगाव रहता है । जो त्यागी होता है उसे तो कचरा और कंचन दोनों में समान भाव रहता है । उसमें तो 'यह पदार्थ अच्छा है और वह पदार्थ खराब है' ऐसा विचार ही नहीं रहता तथा एकमात्र भगवान में ही उसकी प्रीति रहती है' वही सच्चा त्यागी है ।''
इति वचनामृतम् ।। ३६ ।।