संवत् १८६ के पौष महीने की कृष्ण चतुर्दशी के दिन श्रीजी महाराज गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे पलंग पर पश्चिम की और मुखारविन्द किए विराजमान थे। उनके शिर पर सफेद पाग थी, जिसमें पीले पुष्पों का तुर्रा लगा हुआ था, दोनों कानों पर सफेद पुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे और कंठ में पीले तथा श्वेत पुष्पों का हार था । उन्होंने सफेद चादर ओढी थी और श्वेत दुपट्टा धारण किया था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनि तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त की सभा हो रही थी।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''जो नासमझ हो और जिसने वेश धारण किया हो तो भी उसे उसकी जहाँ-जहाँ जन्मभूमि होती है, उसमें से उसका स्नेह टलता नहीं है ।'' इतना कहने के बाद श्रीजी महाराज ने सबको अपनी वह जांघ बतायी, जिसमें बाल्यावस्था में वृक्ष की ढूंढ लग गयी थी । वे बोले - ''इस चिन्ह को जब हम देखते हैं तब हमें उस वृक्ष और तालाब की याद आ जाती है । इसलिए जन्मभूमि और अपने परिवार एवं संबंधीजनों को हृदय से विस्मृत कर देने में बडी कठिनाई होती है । इसलिए, जिन-जिन को जन्मभूमि तथा देह के संबंधीजनों की याद न आती हो, उन्हें बोलना चाहिए और जो लज्जावश न बोले उन्हें श्री नरनारायण की कसम है ।'' बाद में सभी मुनि अपनी-अपनी समझ के अनुसार बोले । उनकी बातों को सुनकर श्रीजी महाराज बोले - ''जब स्वयं को आत्मारुप मानते हैं तब उस आत्मा की जन्मभूमि कैसी ? उस आत्मा का संबंधी कौन ? उस आत्मा की जाति भी कैसी ? यदि संबंध ही बताना हो तो पूर्वजन्मों में चौरासी लाख कोटि की जिन देहों को धारण किया था, उन सबका संबंध समान जानना चाहिए और यदि उन समस्त संबंधियों के कल्याण की इच्छा हो तो सब की कल्याण कामना करनी चाहिए । जब इस मनुष्य देह में आये तब चौरासी लाख तरह के माता-पिताओं को अज्ञानवश भूल गये हैं, उसी प्रकार इस मानव-शरीर के जो माँ-बाप हैं उन्हें ज्ञान द्वारा भूला देना चाहिए । हमें तो किसी भी पारिवारिक संबंधी के साथ स्नेह नहीं है । जो हमारी सेवा करते हों और उनके हृदय में यदि परमेश्वर की भक्ति न हो तो उनसे चाहने पर भी स्नेह नहीं हो पाता है । जो नारदजी - जैसा गुणवान हो, किन्तु उसमें भगवन की भक्ति न हो तो वह हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगता । और जिसके हृदय में भगवान की भक्ति हो और जो यह समझता है कि जैसे प्रकट भगवान पृथ्वी पर विराजते हैं और उन भगवान के जैसे भक्त भगवान के समीप बैठते हैं वैसे के वैसे ही आत्यन्तिक प्रलय होने पर भी रहते हैं और 'ये भगवान तथा भगवद्भक्त सदा साकार ही रहते हैं' ऐसा समझता है। उसने चाहे जैसे भी वेदान्त के ग्रन्थ सुने हों, फिर भी वह भगवान और भगवद्भक्तों को निराकार समझता ही नहीं है और यह जानता है कि 'भगवान के सिवा दूसरा कोई भी जगत का कर्ता है ही नहीं' तथा यह मानता है कि 'भगवान के बिना सूखा पत्ता भी हिलने में समर्थ नहीं हो पाता । जिसे भगवान में साकार भाव की ऐसी दृढ प्रतीति हो और वह जैसा-तैसा हो, तो भी हम उसे पसंद करते हैं । उस पर काल, कर्म तथा माया का हुक्म नहीं चलता । यदि उसे दंड देना हो तो भगवान स्वयं देते हैं, किन्तु उस पर अन्य किसी की आज्ञा नहीं चलती । यदि ऐसी निष्ठा न हो तो उसके त्यागवैराग्य युक्त होने पर भी उसका हमारे अंतःकरण में कोई असर नहीं पडता । जिसके हृदय में ऐसी अचल निष्ठा रहती हो, वह चाहे जितने शास्त्र सुने या चाहे किसी का भी संग करे, तो भी भगवान में साकार-भाव की उसकी निष्ठा नहीं टलती और भगवान को तेज के बिम्ब जैसा निराकार कभी समझता ही नहीं है । ऐसी निष्ठावाले संत की चरणरज को तो हम भी सिर पर चढाते हैं, और उसे दुखित करने से मन में डरते हैं तथा उसके दर्शन के भी इच्छुक रहते हैं । जो जीव ऐसी निष्ठा से रहित हैं वे अपने साधनों के बल पर आत्मकल्याण की कामना करते हैं, परन्तु ऐसे परमेश्वर के प्रताप से अपने कल्याण की इच्छा नहीं करते । ऐसे जडमतिमाले पुरुष तो बिना नौका के अपने बाहुबल से समुद्र को तैरने की इच्छा करनेवाले आदमियों जैसे मूर्ख हैं । जो भगवान के प्रताप से अपना कल्याण चाहते हैं वे तो नाव में बैठकर समुद्र पार करने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों जैसे बुद्धिमान हैं । भगवान के स्वरुप में ऐसा ज्ञान रखनेवाले जो जीव हैं, वे सब देह-त्याग करने के बाद भगवान के धाम में चैतन्य की ही मूर्ति होकर भगवान की सेवा में रहते हैं । जिसकी ऐसी निष्ठा न हो और उसने अन्य साधन अपनाये हों तो वह अन्य देवों के लोक में रहता है । जो भगवान के यथार्थ भक्त हैं, उनका दर्शन तो भगवान के दर्शन के समान है । उनके दर्शन से तो अनेक पतित जीवों का उद्धार होता है । ऐसे ये बडे हैं ।' इस प्रकार की वार्ता करने के बाद श्रीजी महाराज बोले कि 'अब कीर्तन करिए।'
इति वचनामृतम् ।। ३७ ।।