संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल प्रतिपदा के दिन श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में संध्या के समय घुडसाल के बरामदे में गद्दा बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सिर पर लाल पल्ले का सफेद फेटा बांधा था, डोरिया का अंगरखा पहना था और सफेद शाल ओढी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस समय श्रीजी महाराज समस्त हरिभक्तों के सामने देखकर बहुत देर तक विचार करते रहे और बाद में इस प्रकार बोले ''सुनिए हम बात करते हैं कि जो सत्संगी हो उसे सबसे सत्संग हुआ हो तबसे अपने मन को टटोलना चाहिए कि सत्संग के 'प्रथम वर्ष में मेरा मन ऐसा था और बाद में इस प्रकार था तथा इतनी भगवान की और इतनी जगत की वासना थी ।' इस प्रकार वर्ष-वर्ष के लेखाजोखा पर विचार करते रहना चाहिए और अपने मन में जगत की जितनी वासना बाकी रह गयी हो, उसे थोडा थोडा करके निरन्तर समाप्त कर देना चाहिए । यदि वह इस प्रकार विचार नहीं करता है और सबको इकठ्ठा करता जाता है तो उसकी वह वासना नहीं मिटती । जैसे बनियें के घर कोई खाता खोला हो, उसका हिसाब यदि हर महीने लगातार चुका दिया जाय तो उसे देने में कठिनाई नहीं पडती किन्तु एक वर्ष का हिसाब इकट्ठा होने पर उसे चुकता करना बहुत कठिन हो जाता है, वैसे ही निरन्तर विचार करते रहना चाहिए और मन तो जगत की वासनाओं से परिपूरित ही रहता है । जिस प्रकार तिल फूलों की सुगंध से सुगंधित हो जाता है उसी प्रकार भगवान के चरित्र की महिमा सहित नित्य स्मरण रुपी फूल में मन को बसाना चाहिए और भगवान के चरित्ररुपी जाल में मन को जकडकर रखना चाहिए तथा मन में भगवान संबंधी संकल्प करते रहना चाहिए । इस प्रकार, मन को बेकार नहीं रहने देना चाहिए ।'' इतना कहने के बाद श्रीजी महाराज ने भूतकाल को दृष्टांत भी विस्तृत रुप से सुनाया इसके पश्चात श्रीजी महाराज बोले ''इस प्रकार भगवान के एक दिन के चरित्रों, वार्ता तथा दर्शन का यदि स्मरण करने लगें तो उसका पार ही नहीं आ सकता, तब सत्संग होने में दस-पन्द्रह वर्ष लगे होंगे, तो उनका पार नहीं लगता । और उनका इस प्रकार स्मरण किया जाय कि 'इस गाँव में इस प्रकार महाराज तथा परमहंस की सभा हुई, इस तरह महाराज की पूजा तथा इस प्रकार वार्ता हुई,' इत्यादि भगवान के चरित्रों का बार-बार स्मरण करना चाहिए । जो अधिक न समझता हो उसके लिए तो ऐसा करना ही श्रेष्ठ उपाय है । इसके समान दूसरा कोई उपाय नहीं है । तब आप कहेंगे कि 'थोडा अन्न खाएँ तथा अनेक उपवास करें ।' यह बात तो हम नहीं कहते । जिस प्रकार जिनके लिए जो नियम बताये गए हैं, उन्हें उसी तरह सामान्य रुप से रहना चाहिए और कार्य करने के लिए तो हमने जो बात आपसे कही वही हैं । हम तो ऐसा मानते हैं कि मन निर्वासनिक होना चाहिए और देह से चाहे जितनी प्रवृत्ति होती रहे, किन्तु जिसका मन यदि शुद्ध रहता है तो उसका अति अनिष्ठ नहीं होता तथा बाह्या जगत में तो उस प्रवृत्तिवाले का अनिष्ट जैसा प्रतीत हो जिसके मन में वासना हो और बाहर से वह अच्छी तरह निवृत्तिपरायण होकर आचरण करता हो तो बाह्या जगत में वह भले ही अच्छा दिखता हो, परन्तु, उस जीव का अत्यन्त अनिष्ट हो जाता है क्योंकि मृत्यु के समय, मन में जैसे संकल्प होते हैं, वैसी ही उनकी स्मृति होती है । जैसे, भरतजी को अंतकाल में मृगशावक की याद आ गयी, तब उनका स्वरुप मृग के आकार में बदल गया और उन्होंने प्रथम राज्य को छोड दिया था। ऋषभदेव भगवान तो उनके पिता थे तो भी ऐसा हुआ । इसलिए, मन से निर्वासनिक रहना चाहिए, ऐसा हमारा मत है । जो व्रत करना है उससे देह के दुर्बल होने पर मन कमजोर हो जाता है परन्तु जब देह पुष्ट हो जाय तब मन भी पुष्ट हो जाता है, अतः शरीर और मन दोनों का त्याग एक साथ होना चाहिये । इसलिए मन में भगवान के संकल्प होते हों और जगत में संकल्प नहीं हो तब तो वह अपने सत्संग में बडा है और जो ऐसा न हो तो वह छोटा है । गृहस्थ को भी देह द्वारा व्यवहार करना चाहिए तथा मन से भी उसे त्यागी की भाति निर्वासनिक रहना चाहिए और भगवान का चिन्तन करना चाहिए । व्यवहार तो भगवान के वचनों के अनुसार ही करना चाहिए । यदि मन से त्याग वास्तविक न हो तो यह ठीक नहीं है । जनक जैसे राजा भी राजकाज चलाते थे, फिर भी उनका मन तो महान योगेश्वर के समान था । इसलिए मानसिक रुप से त्याग करना ही उचित है, यदि अपने मन में बुरे संकल्प होते हों तो उन्हें बता देना चाहिए परन्तु जिस प्रकार 'कुत्ते का मुख कुत्ता चाटे' 'सर्प के घर मेहमान सांप स्वयं मुह चाटकर लौटा' और विधवा के पास सौभाग्यवती स्त्री जाय तो उससे वह यह कहे कि 'आओ बाई मेरी जैसी तू भी हो जाय' जैसी कहावतें हैं उसी तरह अपने समान जिसके बुरे संकल्प होते हों उसके सामने स्वयं के संकल्पों को प्रकट करना, बताए गये इन दृष्टांतों के समान है । इसलिए अपने संकल्प केवल उसी व्यक्ति के सम्मुख प्रकट करने चाहिए, जिनके मन में कभी भी असत् लौकिक संकल्प न होता हो और जो अपनी बात पर अटल रहता हो । ऐसे व्यक्ति भी अनेक हैं, जिनके मन में ऐसा संकल्प न होता हो । इसलिए, ऐसे पुरुषों में भी ऐसे पुरुष को संकल्प बताया जाय, तो उस संकल्प को सुनकर उस पर बात करे और जब तक उस कहनेवाले का संकल्प टल जाय तब तक बैठते-उठते, खाते-पीते, समस्त क्रियाओं में बात करता ही रहे तथा अपने संकल्पों को टालने की तीव्रता रखनेवाले के सामने ही संकल्प को प्रकट किया जाना चाहिए किन्तु जिसके सम्मुख संकल्प को कहकर उसे टाल करके अपने मन में केवल भगवान का संकल्प करते रहना चाहिए और जगत के सुख से निर्वासनिक हो जाना चाहिए । एकादशी का व्रत करने का क्या लक्षण है ? वह यह है कि दस इन्द्रियों तथा ग्यारहवें मन को अपने-अपने विषय में से हटाकर उन्हें भगवान में जोड देना चाहिए, उसी को एकादशी का व्रत करना कहा जाता है । भगवान के भक्त को ऐसा व्रत तो निरन्तर करना चाहिए । जिसका मन निर्वासनिक न हो और देह से व्रत, तप करता रहे तो भी उसका अतिशय कल्याण नहीं होता । इसलिए, भगवान के माहात्म्य को समझकर अपने मन को निर्वासनिक करने का नित्य अभ्यास करते रहना चाहिए ।'' उन्होंने ऐसी वार्ता कही ।
और फिर श्रीजी महाराज ने अन्य वार्ता कही कि - ''सच्चा त्यागी किसे कहा जाय ?'' वे बोले कि - 'जिस पदार्थ को त्याग कर दिया गया है, उसका फिर से मन में कभी भी संकल्प नहीं होना चाहिए । जिस प्रकार विष्टा करने के बाद फिर से उसका संकल्प नहीं होता, उसी प्रकार संकल्प बार-बार नहीं होता है। इस प्रसंग में शुक जी के प्रति नारद जी द्वारा कहा गया है श्लोक है कि 'त्यज धर्ममधर्मं च'' इसका अर्थ यह है कि एक आत्मा के सिवा जो अन्य पदार्थ हैं उनका त्याग करके आत्मा रुप से आचरण करना चाहिए और भगवान की उपासना करनी चाहिए । उसी को पूर्ण त्यागी कहते हैं तथा जो गृहस्थ हरिभक्त हो वह तो जनक राजा के इस कथन को समझता है कि मेरी यह मिथिला नगरी जलती है, परन्तु उसमें मेरा कुछ भी नहीं जलता । उसके संबंध में यह श्लोक है कि 'मिथिलियां प्रदिप्तायां न में दह्यति किंचन ।' इस प्रकार से समझकर घर में रहता हो वही ज्ञानी गृहस्थ सच्चा हरिभक्त कहलाता है और इस तरह का जो त्यागी व गृहस्थ न हो, उसे प्राकृत भक्त कहा जाता है तथा पहले जैसा कहा गया है वैसा हो तो उसे एकान्तिक भक्त कहा जाता है'' इस प्रकार उन्होंने वार्ता कही । इसके पश्चात बडे आत्मानंदस्वामी ने श्रीजी महाराज से प्रश्न किया - ''देह, इन्द्रिय, अंतःकरण और देवता से भिन्न जो जीवात्मा है, उसका स्वरुप किस प्रकार का है ?''
फिर श्रीजी महाराज बोले कि - ''संक्षेप में इसका उत्तर देते हैं कि देह तथा इन्द्रिय आदि के स्वरुपों का जो वक्ता है वह सभी को स्वरुपों को अलग - अलग करके समझाता है । वह जो समझानेवाला वक्ता है, वह देह आदि सब के प्रमाण का करने वाला और जाननेवाला है और सबसे पृथक रहता है, उसी को जीव कहते हैं तथा जो श्रोता है वह देहादिक के रुपों को अलग - अलग समझता है तथा उन्हें प्रमाणित करता और जानता है और इन सबसे भिन्न है, उसी को जीव कहते हैं । जीव के स्वरुप को समझने की यही रीति है ।'' इस प्रकार उन्होंने वार्ता कही ।
इति वचनामृतम् ।। ३८ ।।