संवत् १८६ के माघ शुक्ल तृतीया के दिन श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम वृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी, शिर पर श्वेत पाग बांधी थी, पीले पुष्पों के तुर्रे पाग में लटकते थे । उन्होंने कान पर श्वेत पीले पुष्पों के गुच्छे डाले थे और कंठ में पीले पुष्पों का हार पहना था । उस समय उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने वहाँ आये एक वेदान्ती ब्राह्मण से प्रश्न किया आप एक ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं और उससे भिन्न जीव, ईश्वर, माया, जगत, वेदों शास्त्रों एवं पुराणों को मिथ्या कहते हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती, इसलिए हम उसे नहीं मानते । अत एव, आपसे पूछते हैं, उसका उत्तर दीजिए । आप यह उत्तर वेदों, शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों तथा इतिहास के प्रमाणों के साथ दीजिए ! यदि आप किसी कल्पित ग्रंथ के वचनों का उदाहरण देकर उत्तर देंगे तो हम उसे नहीं मानेंगे । यदि आप यही उत्तर व्यासजी के वचनों के आधार पर देंगे तो हम उसे मान लेंगे क्योंकि हमें व्यासजी के वचनों में दृढ आस्था है । बाद में वह वेदान्ती अनेक प्रकार की युक्तियों के साथ उत्तर देने लगा परन्तु श्रीजी महाराज ने उसमें आशंका प्रकट की इसलिए उस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'सुनिए, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं और वह यह है कि परमेश्वर का भजन करके जो भक्त हो चुके हैं उनकी स्थिति के दो प्रकार है । जैसे, मेरु पर्वत पर खडे हुए पुरुष मेरु के निकटवर्ती समस्त पर्वतों वृक्षों और उनके आधार तल सबको पृथक रुप से देखता है, वैसे ही सविकल्प समाधिवाले ज्ञानी मुक्त जीव, ईश्वर माया तथा उनके आधार ब्रह्म सबको अलग-अलग रुप से देखता है और लोकालोक पर्वत ऊपर खडा जो पुरुष उन उन लोकालोक पर्वत से उपर पर्वत तथा वृक्ष उन सभी को एकमात्र पृथ्वी रुप में ही देखते हैं परन्तु पृथक रुप से नहीं देखते, वैसे ही निर्विकल्प समाधिवाले महामुक्त जीव, ईश्वर तथा माया को एक मात्र ब्रह्म रुप में ही देखते है, किन्तु पृथक रुप से नहीं देखते । इसी रीति से दो प्रकार की स्थितिवाले मुक्तों की स्थिति के योग से उन सब की सत्यता तथा असत्यता कही जाती है । सविकल्प स्थितिवालों के वचन वेदों, शास्त्रों तथा पुराणों आदि में आते हैं, उन सब को सत्य कहते हैं और निर्विकल्प स्थितिवालों के वचनों को असत्य कहा जाता है । परंतु ये सब असत्य नहीं है क्योंकि ये तो अपनी निर्विकल्प स्थित के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते, इस कारण उन्हें असत्य कहा जाता है । जिस प्रकार सूर्य के रथ में जो बैठे हों उनके लिए रात्रि नहीं होती परन्तु पृथ्वी के ऊपर रहनेवालों के लिए रात और दिन होते हैं उसी प्रकार निर्विकल्प स्थितिवालों के मतानुसार ये सब नहीं हैं किन्तु दूसरों के मत से तो ये सभी हैं । इस प्रकार ब्रह्मनिरुपण करने से तो शास्त्रों के वचनों में पूर्वापर बाधा नहीं आती । यदि ऐसा नहीं किया गया तो पूर्वा पर की बाधा उपस्थित हो जाती है । जो उस बाधा को तो न समझता हो तथा ऐसी स्थिति को भी प्राप्त नहीं हुआ हो और केवल शास्त्रों में से सीखकर वचन मात्र से एक ही ब्रह्म के होने का प्रतिपादन करता हो तथा गुरु, शिष्य, जीव, ईश्वर, माया, जगत और वेदों, पुराणों, शास्त्रों को कल्पित कहता हो तो, वह तो महामूर्ख है और अंत में वह नारकीय जीव बन जाता है। ''ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'हमने यह बात कही है, उसमें यदि आपको आशंका होती हो तो बोलिए ।' तब वह वेदान्ती ब्राह्मण बोला - 'हे महाराज ! हे प्रभो, हे स्वामिन, आप तो परमेश्वर हैं और जगत के कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं । अतएव, आपने जो उत्तर दिया है वह यथार्थ है, उसमें आशंका के लिए कोई भी स्थान नहीं है। इतना कहकर वह वेदान्ती ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने अज्ञान का परित्याग करके श्रीजी महाराज का आश्रित हो गया।
इति वचनामृतम् ।। ३९ ।।