वचनामृतम् ४०

संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल चतुर्थी को प्रातः काल श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम वृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी, शिर पर श्वेत पाग बांधी थी, उनकी पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लटकता था और कंठ में उन्होंने पीले पुष्पों का हार पहना था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख समस्त मुनियों तथा देश - देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज से मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज  सविकल्प समाधि तथा निर्विकल्प समाधि किसे कहते हैं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के स्वरुप में जिसकी स्थिति हो गयी हो तो उसमें अशुभ वासना तो नहीं रहती, किन्तु यह शुभ वासना रही हो कि मैं नारदसनकादिक तथा शुकजी - जैसा हो जाउँ या नरनारायण के आश्रम में जाकर और वहाँ के मुनियों के साथ रहकर तप करुँ या श्वेत द्वीप में जाकर तपस्या करके श्वेतमुक्त सदृश हो जाऊँ । इस प्रकार का विकल्प जिसमें रहता हो उसे सविकल्प समाधिवाला कहते हैं किन्तु जो इस प्रकार का विकल्प न रखता हो तथा अक्षर ब्रह्म के साधर्म्यभाव को प्राप्त करके केवल भगवान की मूर्ति में ही निमग्न रहता हो, उसे निर्विकल्प समाधिवाला कहते हैं । इसके पश्चात् मुक्तानंद स्वामी ने पुनः यह प्रश्न किया है महाराज भक्ति तथा उपासना में क्या अंतर रहता है ? तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम्, इस तरह नौ प्रकार से भगवान की जो आराधना की जाती है उसे भक्ति कहते हैं तथा उपासना तो उसे कहा जाता है, जिसे भगवान के स्वरुप में सदैव साकार - भावकी दृढ निष्ठा और भजन करनेवाला यदि स्वयं ब्रह्मरुप हो जाय तो भी उस निष्ठा का लोप न हो और निराकार - भाव का प्रतिपादन करनेवाला चाहे किसी भी ग्रंथ को सुने, तो भी भगवान के स्वरुप को सदा साकार ही समझे और शास्त्रों में चाहे जो भी बात आए किन्तु स्वयं भगवान के साकार स्वरुप का ही प्रतिपादन करे, परन्तु अपनी उपासना का खंडन नहीं होने देता । इस प्रकार जिसकी दृढ बुद्धि हो, उसे उपासक कहते हैं ।'

इति वचनामृतम् ।। ४० ।।