वचनामृतम् ४१

संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल पंचमी को संध्या काल के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के समीप नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछाये गए पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, पीले पुष्पों के हार पहने थे तथा पीले पुष्पों के गुच्छे कान पर धारण किये थे और पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लटकते हुए रखे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'प्रश्नोत्तर करिए ।' तब नृसिंहानंद स्वामी ने पूछा कि - ''हे महाराज ! एको।हं बहुस्यां प्रजायेय', इस श्रुति वाक्य का जो अर्थ है उसे जगत के कितने ही पंडित तथा वेदान्ती ऐसा समझते हैं कि 'प्रलय काल में जो एकमात्र भगवान थे, वे ही स्वेच्छा से सृष्टिकाल में समस्त जीव ईश्वररुप हो गये हैं ।' यह बात तो मूर्ख मानता है और हमें आपका ही आश्रय है इसलिए उस बात का मेल नहीं बैठता है और हम तो ऐसा समझते हैं कि भगवान तो अच्युत हैं और वे च्युत होकर जीव-ईश्वररुप नहीं होते । इसलिए आप उस श्रुति-वाक्य का अर्थ कहिए, ताकि यथार्थ बात समझ में आ सके ।'' फिर श्रीजी महाराज बोले ''ये सब इस श्रुति का जैसा अर्थ बताते हैं वैसा नहीं है । इसका अर्थ तो दूसरी तरह का है और वह वेद-स्तुति के गद्य में कहा गया है कि 'स्वकृतविचत्रियोनिषु विशन्निव हेतुतया तरतमतश्चकास्य-नलवत्स्वकृतानुकृतिः ।' इसका अर्थ यह है कि 'पुरुषोत्तम भगवान स्वनिर्मित नाना प्रकार की योनियों में कारण भाव तथा अंतर्यामीरुप द्वारा प्रवेश करके न्यूनाधिक भाव से प्रकाश करते हैं ।' उसकी प्रक्रिया यह है कि अक्षरातीत पुरुषोत्तम भगवान सृष्टिकाल में जब अक्षर के सम्मुख दृष्टि करते हैं तब उस अक्षर में से पुरुष प्रकट होता है । इसके बाद वे पुरुषोत्तम अक्षर में प्रवेश करके पुरुष में प्रवेश करते हैं तथा पुरुषरुप होकर प्रकृति को प्रेरित करते हैं । इस प्रकार ज्यों-ज्यों पुरुषोत्तम का प्रवेश होता गया त्यों-त्यों सृष्टि की प्रवृत्ति हुई । जब प्रकृति-पुरुष से प्रधान पुरुष का आविर्भाव हुआ तथा उन प्रधान पुरुष से महत्त्व, महत्त्व से तीन प्रकार का अहंकार, अहंकार से भूत, विषय, इन्द्रियाँ, अंतःकरण तथा देवता हुए । उनसे विराट पुरुष तथा उनके नाभिकमल से ब्रह्मा, उन ब्रह्मा से मरीच्यादिक प्रजापति, उनसे कश्यप प्रजापति, उनसे इन्द्रादि देवता और दैत्य उत्पन्न हुए तथा स्थावर-जंगम की सृष्टि हुई और पुरुषोत्तम भगवान उन सब में कारणभाव से अंतर्यामीरुप द्वारा प्रवेश करके रहे हैं, किन्तु जिस प्रकार वे अक्षर में हैं, उस प्रकार प्रकृति रुप में नहीं है । जिस प्रकार प्रकृति पुरुष में हैं, उस प्रकार प्रधानपुरुष में नहीं हैं, जैसे प्रधान पुरुष में हैं वैसे महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वों में नहीं है, जैसे विराटपुरुष में हैं वैसे ब्रह्मा में नहीं हैं, जिस प्रकार ब्रह्मा में हैं, उस प्रकार मरीच्यादि में नहीं हैं, जैसे मारीच्यादि में हैं वैसे कश्यप में नहीं हैं, जिस प्रकार कश्यप में हैं उस प्रकार इन्द्रादि देवताओं में नहीं हैं, जैसे इन्द्रादि देवताओं में हैं वैसे मनुष्य में नहीं हैं जिस तरह मनुष्य में हैं उस प्रकार पशुपक्षी में नहीं है । इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान तारतम्यपूर्वक सब में कारणभाव और अंतर्यामीरुप से रहते हैं । जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि रहती है और वह भी लम्बे काष्ठ और टेढे काष्ठ में उसके आकार के समान ही रहती है, उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान भी जिसके द्वारा जो कार्य करना हैं उतनी सामर्थ्य के साथ ही उसमें रहते हैं । अक्षर तथा पुरुष-प्रकृति आदि सब में पुरुषोत्तम भगवान अंतर्यामीरुप से रहे हैं परन्तु पात्र की तारतम्यता से सामर्थ्य में तारतम्यभाव रहता है । इस प्रकार एक मात्र पुरुषोत्तम भगवान अंतर्यामी रुप से इन सब में प्रवेश करके रहे हैं किन्तु जीव-ईश्वर-भाव को स्वयं ग्रहण करके अनेक रुपों से नहीं हुए, इस प्रकार इस श्रुति-वाक्य का अर्थ समझना चाहिए ।''

इति वचनामृतम् ।। ४१ ।।