संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल षष्ठी को श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछाये पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उन्होंने शिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफेद चादर ओढी थी, श्वेत दुपट्टा धारण किया था और दोनों कानों के ऊपर पीले पुष्पों के गुच्छे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस सभा में कई वेदान्ती ब्राह्मण आकर बैठे थे । उन्हें देखकर श्रीजी महाराज बोले - ''वेदान्त शास्त्र को जो-जो पढते और सुनते हैं, वे ऐसा कहते हैं कि 'विधिनिषेध तो मिथ्या है तथा विधिनिषेध से प्राप्त होने योग्य जो स्वर्ग और नरक है, वे भी मिथ्या हैं और उन्हें पानेवाले जो शिष्य और गुरु हैं, वे भी मिथ्या हैं और एकमात्र ब्रह्म ही सबमें समाया हुआ है, वह सत्य है ।' इस प्रकार जो कहते हैं वे क्या समझकर कहते होंगे ? समस्त वेदान्तियों के जो आचार्य शंकराचार्य हैं, उन्होंने तो अपने शिष्यों को दंड-कमंडल धारण कराये और ऐसा कहा कि 'भगवद्गीता तथा विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए और विष्णु का पूजन करना चाहिए तथा तरुणों को वयोवृद्ध व्यक्तियों का सम्मान करना चाहिए और पवित्र ब्राह्मण के घर की ही भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।' इस प्रकार उन्होंने विधिनिषेध का जो प्रतिदान किया, तो क्या उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं होगा? और आजकल के जो ज्ञानी हुए हैं उन्होंने विधिनिषेध को मिथ्या कर डाला है तो क्या वे शंकराचार्य की अपेक्षा बडे हो गये ? इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे यह बात केवल मूर्खता के कारण कहते हैं ।
विधिनिषेध को शास्त्रों में जिस प्रकार मिथ्या कहा गया है, उसे इस तरह बताया गया है कि जैसे कोई बडा जहाज हो तथा वह महासागर में एक वर्ष तक चला ही जाता है और उसे अगला और पिछला किनारा भी दिखायी नहीं पडता और उन दोनों किनारों के बडे-बडे पर्वत भी जब दिखायी नहीं पडते तब वृक्ष तथा मनुष्य कैसे दिख सकते हैं ? और जहाँ देखा जाय वहाँ केवल जल ही जल दिखायी पडता है किन्तु उसके अलावा दूसरी कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पडती और यदि ऊँचा देखा जाय तो समुद्र की बडी-बडी लहरों के उठने पर केवल ऊँचा जल ही दिखायी पडता है । तब उस जहाज में बैठे हुए पुरुष भी ऐसा कहते हैं कि ''केवल जल ही है, दूसरा कुछ भी नहीं है ?''
इस दृष्टान्त का सिद्धान्त यह है कि ब्रह्मस्वरुप में जिनकी निर्विकल्प स्थिति हो गयी हो वे तो ऐसा ही बोलेंगे कि 'एकमात्र ब्रह्म ही है और उसके सिवा जो अन्य जीव, ईश्वर और माया आदि हैं वे सब मिथ्या हैं' और उनके वचन शास्त्रों में लिखे गये हों उन्हें सुनकर अपनी तो स्थिति ऐसी नहीं हुई हो तो भी विधिनिषेध को मिथ्या कहते हैं । यद्यपि पुरुष स्त्रियों और लडकों की तो सुश्रुषा जानकर सावधानी के साथ करते रहते हैं, परन्तु शास्त्रों में प्रतिपादित विधिनिषेध को मिथ्या कहते हैं । इसलिए, इस जगत में ज्ञाान बतानेवाले ऐसे जो पुरुष हैं उन्हें तो घोर अधम तथा नास्तिक समझना चाहिए । शंकराचार्य ने तो जीव के हृदय में नास्तिकता आ जाने की आशंका के कारण 'भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढमते ।' आदि विष्णु के अनेक स्तोत्रों तथा शिवजी, गणपति और सूर्य आदि बहुत से देवताओं के स्तोत्रों की रचना की है, जिनको सुनकर सब देवताओं के संबंध में सत्यता का आभास हो जाय, इस आशय से ही शंकराचार्य ने सभी देवताओं के स्तोत्र तैयार किये हैं, किन्तु आजकल के जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे तो सबको मिथ्या कर डालते हैं और फिर ऐसा बोलते हैं कि 'ज्ञानी तो चाहे कैसा ही पाप करें तो भी उसका उन पर कुछ भी असर नहीं होता ।' वे मूर्खता के कारण ऐसी बात करते हैं ।
जितने त्यागी परमहंस हो गये हैं, उन सबमें जडभरत श्रेष्ठ हैं और जितने पुराण तथा वेदान्त संबंधी ग्रंथ हैं उन सबमें जडभरत की वार्ता लिखी हुई है । ऐसे महान जडभरत पूर्वजन्म में ऋषभदेव भगवान के पुत्र थे और राज्य का त्याग करके वन में गये थे, उन्हे दया से भी यदि मृग के साथ प्रीति हो गयी तो उसका दोष लगा और स्वयं को मृग के रुप में जन्म लेना पडा और मृग के समान चार पैर, छोटी पूंछ, सिर में छोटे सींग हुए, ऐसा आकार उन्हें प्राप्त हुआ । परमात्मा श्रीकृष्ण भगवान के साथ ब्रज की गोपियों ने कामबुद्धि से प्रीति की तो भी सब भगवान की माया को तर गयीं और स्वयं गुणातीत होकर उन्होंने भगवान के निर्गुण अक्षरधाम को प्राप्त कर लिया । उसका कारण यह है कि श्रीकृष्ण भगवान स्वयं साक्षात् पुरुषोत्तम गुणातीत दिव्यमूर्ति थे, तो गोपियों ने उनके साथ जानबूझकर या अनजाने प्रीति की तो भी वह गुणातीत हुई और भरतजी ने भगवान की दया से मृग से प्रीति की तो वे मृग हो गये । इसलिए, चाहे जितने बडे हों उन्हें भी कुसंग द्वारा बुरा ही फल मिलता है और चाहे जितना पापी जीव हो, वह यदि सत्यस्वरुपवाले भगवान का अटूट संबंध करे तो परम पवित्र होकर अभय पद को पा जाता है ।
यदि श्रीकृष्ण भगवान स्वयं गुणातीत न होते तो उनकी भक्त गोपियाँ गुणातीत भाव को प्राप्त नहीं कर पातीं । यदि उन्होंने गुणातीत पद को प्राप्त कर लिया तो श्रीकृष्ण भगवान गुणातीत कैवल्य दिव्यमूर्ति ही हैं । वेदान्ती तो यह कहते हैं कि 'ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है ।' जब जिस प्रकार गोपियों ने श्रीकृष्ण भगवान से प्रीति की, वैसे ही सब स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों से प्रीति करती हैं और सब पुरुष अपनी अपनी स्त्रियों से प्रीति करते हैं तो भी उन्हें गोपियों जैसी प्राप्ति नहीं होती । उन्हें तो घोर नरक की प्राप्ति होती है । इसलिए, जो विधिनिषेध हैं, वे सच्चे हैं मिथ्या नहीं हैं, जो विधिनिषेधों को मिथ्या करते हैं वे तो नारकीय जीव होते हैं ।'' ऐसी वार्ता करके श्रीजी महाराज 'जय सच्चिदानंद' कहकर अपने निवास पर पधारे ।
इति वचनामृतम् ।। ४२ ।।