संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल सप्तमी को संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी, सफेद चादर ओढी थी और श्वेत दुपट्टा धारण किया था और पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लटकते थे । उन्होंने कंठ में पीले पुष्पों के हार पहने थे तथा दोनों कानों पर पीले पुष्पों के गुच्छे लगाये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस समय श्रीजी महाराज समस्त भक्तजनों को करुणा दृष्टि से सबके सामने देखकर बोले कि ''सब सुनिए, एक प्रश्न करते हैं कि श्रीमद् भागवत पुराण में यह कहा गया है कि 'जो भगवान के भक्त हों वे चार प्रकार की मुक्ति के इच्छुक नहीं होते ।' भगवान के अन्य बडे भक्त भी ऐसा कहते हैं कि 'भगवदभक्त चार प्रकार की मुक्ति को नहीं चाहते ।' वह चार प्रकार की मुक्ति क्या है ? इनमें पहली भगवान के लोक में रहना, दूसरी भगवान के सान्निध्य में रहना, तीसरी भगवान के समान रुप को प्राप्त करना और चौथी मुक्ति भगवान के सदृश ऐश्वर्य की प्राप्ति है । चार प्रकार की ऐसी जो मुक्ति है, उसे भगवान का भक्त नहीं चाहता, वह तो केवल भगवान की सेवा का ही इच्छुक रहता है । अब प्रश्न यह है कि वह भक्त चार प्रकार की मुक्तियाँ क्यों नहीं चाहता ? इसका उत्तर जिसे जैसा आता हो वैसा करें ।'' तब समस्त परमहंस उत्तर देने लगे लेकिन यथेष्ठ उत्तर न दे सके। तब श्रीजी महाराज बोले - ''इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं और वह यह है कि भगवान के भक्त होकर भी जो पुरुष यदि चार प्रकार की मुक्ति की इच्छा रखें तो वह सकाम भक्त कहलाता है । जो भक्त इस चतुर्धा मुक्ति को नहीं चाहता किन्तु एकमात्र भगवान की सेवा का ही इच्छुक रहता है, वह निष्काम भक्त कहा जाता है । इसका वर्णन श्रीमद् भागवत में किया गया है कि -
''मत्स्ेवया प्रतीतं च सालोक्यादि चतुष्टयम् ।
नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतो।न्यत्कालविप्लुतम् ।
सालोक्यसार्ष्टि सामीप्यसारुप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ।।''
इसका अर्थ यह है कि भगवान का निष्काम भक्त उस चतुर्धा मुक्ति की भी इच्छा ही नहीं करता, जिसमें भगवान की सेवा या परिचर्या नहीं हो । वह तो केवल सेवा का ही इच्छुक रहता है । ऐसे निष्काम भक्त को भगवान अपनी सेवा में रखते हैं और भक्त की अनिच्छा होने पर भी भगवान बलपूर्वक उसे अपने ऐश्वर्य-सुख प्राप्त कराते हैं । उस संबंध में कपिलदेव भगवान ने कहा है कि -
''अथो विभूतिं मम मायाबिनस्तामैश्चर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं भागवतीं वा स्पृहयन्ति भद्रां परस्य मे ते।श्नुक्ते तु लोके ।।''
भगवान ने ऐसे निष्काम भक्तों को ही गीता में ज्ञानी कहा है, तथा जो सकाम भक्त हैं उन्हें अर्धार्थी बताया है । इसलिए भगवान के भक्तों को भगवान की सेवा के सिवा अन्य किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करनी चाहिए । यदि ऐसी इच्छा रहे तो इसमें इतनी अपरिपक्वता कहलाती है । इसलिए, भगवान के निष्काम एकान्तिक भक्त का समागम करके इस तरह की अपरिपक्वता को समाप्त कर डालना चाहिए ।''
इति वचनामृतम् ।। ४३ ।।