संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल अष्टमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में सवेरे के समय श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य भाग में बिछाये गए पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी, शिर पर श्वेत पाग बाँधी थी और उस पाग के अंतिम छोर को मुख पर लपेटा हुआ था । उस पाग पर पडे हुए सफेद पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने प्रश्न किया कि - ''भगवान में स्नेह हो, उसका क्या स्वरुप है ?'' बाद में ब्रह्मानंदस्वामी स्नेह का स्वरुप बताने लगे, परन्तु समाधान नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराज बोले, ''आपको तो स्नेह की दिशा ही नहीं मिली और अपने पिंड-ब्रह्मांड से निस्पृह रहने को स्नेह की जो संज्ञा दी हैं, यह स्नेह का स्वरुप नहीं बल्कि वैराग्य का रुप है । स्नेह तो उसे कहते हैं, जिसके द्वारा 'भगवान की मूर्ति की अखंड स्मृति बनी रहे ।' उसी को स्नेह कहते हैं । जिस भक्त का परिपूर्ण स्नेह भगवान में रहता हो, उसे तो भगवान के सिवा अन्य संकल्प ही नहीं होता है । उतना ही अंतर उसके स्नेह में रहता है । भगवान में जिसका परिपूर्ण स्नेह है, उसे ज्ञान या अज्ञान से भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य कोई भी संकल्प हो जाय तो उसे भगवान से भिन्न अन्य संकल्प के कारण उतना ही असह्य कष्ट होता है, जिस प्रकार पांच प्रकार के स्वादिष्ट भोजन करते समय किसी के द्वारा हथेली भरकर कंकड और मिट्टी डाले जाने या कपाल को किसी बहुत गरम वस्तु से जलाये जाने के कारण असह्य आघात पहुँचता है । जिसका ऐसा आचरण रहे, उसे भगवान से प्रीति है, ऐसा समझना चाहिए । इसलिए, आप सब अपने-अपने हृदय को टटोल कर देखिए, तो जिसको जितनी प्रीति होगी उसका पता उसको लग जाएगा ।''
फिर ब्रह्मानंदस्वामी ने पूछा ''भगवान में ऐसी दृढ प्रीति बनी रहे, इसका कौन-सा साधन है ?'' श्रीजी महाराज बोले - ''सत्पुरुषों का प्रसंग ही परमेश्वर में दृढ प्रीति होने का कारण होता है ।'' तब सोमला खाचर बोले - ''ऐसा प्रसंग तो अतिशय करते हैं तो भी ऐसी दृढ प्रीति क्यों नहीं होती ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''आप प्रसंग तो करते हैं लेकिन उसमें भी आधा प्रसंग हमारा और आधा प्रसंग जगत का करते हैं । इस कारण भगवान में दृढ प्रीति नहीं होती ।''
इसके बाद गांव वसो के विप्रवाला ध्रुव ने प्रश्न किया कि - ''हे महाराज देह और देह के संबंधियों में अहंभाव और ममता के जो संकल्प होते रहते हैं, उन्हें कैसे टाला जा सकता है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले - ''यह तो जीव की विपरीत भावना हुई है कि 'अपने को देह से पृथक रहनेवाली जीवात्मा को तद्रूप नहीं मानता परन्तु देहरुप समझता है ।' उस जीवात्मा में देह किस प्रकार लिपटी हुई है, वह बताते हैं । जिस प्रकार कोई पुरुष दर्जी के घर जाकर अंगरखा सिलवाता है और उसे पहनता है तब वह ऐसा मानता है कि 'दर्जी मेरा बाप है और दर्जिन मेरी माँ है ।' जो ऐसा मानता है वह मूर्ख कहलाता है । उसी प्रकार इस जीव का यह देहरुपी जो अंगरखा है, वह कभी ब्राह्मण और ब्राह्मणी से उत्पन्न होता है और कभी उसकी उत्पत्ति नीच जाति से होती है तथा चौरासी लाख योनियों से देह उत्पन्न होती है । यदि वह उस देह में अहंभाव मानता है और उस देह के माँ-बाप को अपना माँ-बाप समझता है तो वह मूर्ख कहलाता है और उसे पशु जैसा समझा जाना चाहिए तथा चौरासी लाख योनियों में अपनी जो माताएँ, बहनें, लडकियाँ और स्त्रियाँ होती है, उनमें से कोई भी पतिव्रता के धर्म का पालन नहीं करती, इस कारण, जो ऐसे संबंध को सच्चा मानता है, उसके अहंभाव तथा ममता के संकल्प कैसे मिटेंगे ? इस प्रकार के ज्ञान के बिना जन्मभूमि की वासना की समाप्ति अत्यन्त कठिन रहती है । जब तक पुरुष देह को अपना स्वरुप मानता रहता है तब तक उसकी समस्त समझ वृथा ही रहती है । जब तक वह वर्ण या आश्रम का घमंड रखकर घूमता रहता है तब तक उसमें साधुता आती ही नहीं है । इसलिए देह तथा देह के संबंधियों में रहनेवाले अहंभाव तथा ममता का परित्याग करके तथा अपनी आत्मा को ब्रह्मरुप मानकर और समस्त वासनाओं का त्याग करके जो पुरुष स्वधर्मरत रहते हुए भगवान का भजन करता है, वह साधु कहलाता है । जिसमें ऐसी साधुता रहती है, उसमें तथा पुरुषोत्तम भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती। दूसरा सब कुछ हो सकता है लेकिन इस प्रकार की साधुता का भाव उत्पन्न होना अत्यन्त कठिन है । 'ऐसा साधु तो मैं हूँ क्योंकि मुझ में वर्णाश्रम का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है ।' इस प्रकार श्रीजी महाराज बोले । यह तो उन्होंने अपने भक्तों को शिक्षा देने के निमित्त ही बताया है, ऐसा समझना चाहिए तथा वे स्वयं तो साक्षात् पुरुषोत्तम नारायण है ।
इति वचनामृतम् ।। ४४ ।।