संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल दशमी को संध्या के समय स्वामी श्री सहजानंदस्वामी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे चबूतरे पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने श्वेत चादर ओढी थी, सफेद दुपट्टा धारण किया था और शिर पर श्वेत पाग बांधी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश - देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात गोपालानंद स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज कितने ही वेदान्ती ऐसा कहते हैं कि भगवान का आकार नहीं है और उसके ही प्रतिपादन की श्रुतियों को पढते हैं तथा नारद, शुक, सनकादिक जैसे कितने ही भगवदभक्त तो भगवान के साकार भाव को प्रतिपादित करते हैं । इसलिए इन दोनों में से कौन सच्चा है ?' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भगवान पुरुषोत्तम है, वे तो सदा साकार ही हैं तथा महा तेजोमय मूर्ति हैं और अंतर्यामीरुप से सर्वत्र पूर्ण जो सच्चिदानंद ब्रह्म है, वह तो मूर्तिमान पुरुषोत्तम भगवान का तेज है । श्रुतियों में भी ऐसा कहा गया है कि वे भगवान माया के सामने देख रहे थे । वे जब देखते हैं तब क्या उन्हें अकेली आँखें ही होंगी ? हाथ - पैर भी होते होंगे ही । इसलिए साकार रुप का प्रतिपादन हुआ । जिस प्रकार, समग्र जल के जीव रुप वरुण अपने लोक में साकार हैं, किन्तु जल निराकार कहलाता है, अग्नि की ज्वाला निराकार कहलाती है,परन्तु उसके देवता अग्नि अपने अग्निलोक में साकार हैं और जसे समग्र धूप निराकार कहलाती है, परन्तु सूर्य मंडल में व्याप्त सूर्यदेव साकार हैं, वैसे ही सच्चिदानंद ब्रह्म निराकार है, परन्तु पुरुषोत्तम भगवान साकार है और सर्वत्र पूर्ण रुप से विद्यमान सच्चिदानंद ब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान का तेज हैं । तब कुछ लोग इस प्रकार कहेंगे कि श्रुतियों में तो ऐसा बताया गया है कि परमेश्वर तो कर-चरणादि से रहित हैं और सर्वत्र पूर्ण हैं । तो इन श्रुतियों ने कर - चरणादि का निषेध किया है वह तो मायिक कर - चरणादि का निषेध है । भगवान का आकार तो दिव्य है, परन्तु मायिक नहीं है । यद्यपि अंतर्यामी रुप से जीव-ईश्वर, में व्यापक पुरुषोत्तम भगवान का ब्रह्म रुप तेज निराकार है, तथापि जीव-ईश्वर, सबको उनके कर्मानुसार यथायोग्य कर्मफल देने में नियन्ता है तथा साकार के समान नियन्ता रुप क्रिया को करता है । इसलिए उस तेज को साकार - जैसा समझना चाहिए । इस प्रकार भगवान पुरुषोत्तम सदैव साकार ही है, वे निराकार नहीं हैं । फिर भी उन्हें जो निराकार कहते हैं, वे तो समझते नहीं हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। ४५ ।।