संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल एकादशी को संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के समीप चबुतरे पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और सिर पर श्वेत पाग बांधी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस समय भट्ट माहेश्वर नामक वेदान्ती ब्राह्मण ने श्रीजी महाराज से प्रश्न किया कि - 'समाधि में जब सभी लीन हो जाते हैं तब आकाश किस प्रकार लीन होता है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'आकाश के रुप का हम समुचित रुप से विश्लेषण करते हैं, उसे आप सब सावधान होकर सुनिए । आकाश तो अवकाश को कहते हैं और जो जो पदार्थ रहते हैं, वे अवकाश में ही रहते हैं । उन पदार्थों में भी आकाश व्याप्त होकर रहा है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसमें आकाश न हो क्योंकि पृथ्वी के अतिसूक्ष्म रजकण में भी आकाश है और यदि उसके करोडों टुकडे भी कर डालें तो भी उसमें आकाश रहता है । इसलिए, आकाश की दृष्टि से जब देखें तब पृथ्वी आदि चार भूत नहीं दिखायी पडते अकेला आकाश ही दिखायी पडता है । वह आकाश सब का आधार है तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारणरुपी तीन शरीर आकाश में रहते हैं। ऐसा आकाश प्रकृति-पुरुष तथा उनके कार्य पिंड-ब्रह्मांड के भीतर भी रहा है तथा सबका आधार होकर बाहर भी रहा है । ऐसा यह आकाश तो सुषुप्ति या समाधि में भी लीन नहीं होता। तब कोई कहेगा कि आकाशादिक पंचभूत तो तमोगुण से उत्पन्न हुए हैं, ऐसी स्थिति में उस आकाश को पुरुष तथा प्रकृति का आधार कैसे कहा जा सकता है ? उसे सर्वव्यापक भी कैसे कहा जाय ? इसका उत्तर तो यह है कि प्रकृति में यदि अवकाश रुपी आकाश न हो तो जिस प्रकार वृक्षों में से फल - पुष्पादिक बाहर निकलते हैं और गाय के पेट में से बछडा निकलता है, उसी तरह प्रकृति में से जो महत्तत्त्व निकलता है, वह फिर कैसे निकलेगा ? इसलिए, प्रकृति में आकाश रहा है तथा महत्तत्त्व में से अहंकार निकलता है, इस कारण महत्तत्व में आकाश रहा है । इसी तरह तमोगुण में से आकाश आदि पांच भूत निकलते हैं, इसलिए तमोगुण में भी आकाश रहा हैं । तमोगुण में से जो आकाश निकलता है वह तो तमोगुण का कार्य है जो विकारमान है, किन्तु सबका आधार जो आकाश है, वह निर्विकार और अनादि है । ऐसा सर्वाधार जो आकाश है, उसे ब्रह्म तथा चिदाकाश कहते हैं । इस आकाश में पुरुष तथा प्रकृति संकोच और विकास - अवस्था को प्राप्त करते हैं । अब प्रश्न यह है कि जब पुरुष प्रकृति के सामने देखता है तब स्त्री-पुरुष से होनेवाली संतानोत्पत्ति के समान पुरुषरुपी पति तथा प्रकृतिरुपी स्त्री से महत्तत्वादिक संतान की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार यह प्रकृति चौबीस तत्त्व रुप तथा पिंड-ब्रह्मांड रुप से होती है और यही प्रकृति की विकास अवस्था है । इसके अतिरिक्त, प्रकृति के जितने कार्य हैं, उनमें पुरुष अपनी शक्ति द्वारा व्यापक रुप से रहता है, यही पुरुष की विकास अवस्था है । जब काल द्वारा प्रकृति के सब कार्य नष्ट हो जाते हैं और प्रकृति भी पुरुष के अंग में लीन - सी रहती है, तब उसी को प्रकृति की संकोचावस्था कहा जाता है । जब पुरुष भी प्रकृति के समस्त कार्यों के नष्ट होने पर अपने स्वरुप में बना रहता है, उसीको पुरुष की संकोचावस्था माना जाता है । जैसे कछुआ विकासोन्मुख होने पर अपने समस्त अंगों को बाहर निकाल लेता है और संकोचावस्था को प्राप्त होने पर अपने सभी अंगों को समेट लेता है, तब वह अकेला हो जाता है, वैसे ही पुरुष तथा प्रकृति की संकोच एवं विकास की अवस्था बनी रहती है । प्रकृति तथा उसके कार्यों में भी पुरुष का ही अन्वय - व्यतिरेक भाव रहता है, परन्तु सबका आधार जो चिदाकाश है, उसका ऐसा अन्वय-व्यतिरेक भाव नहीं है क्योंकि जो सर्वाधार है, वह किससे व्यतिरिक्त हो जाय ? वह तो सदैव सब में रहा है । जो यह ब्रह्मांड है, उसके चारों ओर लोकालोक पर्वत है, जो उसके लिए किले के समान रहा है । उस लोकालोक से बाहर अलोक है, उससे परे सात आवरण हैं, उनसे परे अकेला अंधेरा है और उस अंधेरे से परे प्रकाश है, जिसे चिदाकाश कहते हैं । उसी प्रकार, ऊँचाई भी ब्रह्मलोक तक बतायी गयी हैं, उसके परे सप्त आवरण हैं, उनसे परे अंधकार है, उससे परे प्रकाश है, जिसे चिदाकाश कहा जाता है । इस प्रकार ब्रह्मांड के चारों ओर चिदाकाश है, और वही ब्रह्मांड के अंदर भी है । ऐसा जो वह सर्वाधार आकाश है उसके आकार में जिसकी दृष्टि पहुंचती हो उसे दहरविद्या कहते हैं । और भी अक्षिविद्या आदि अनेक प्रकार की ब्रह्मविद्याएँ कही गयी हैं, जिनमें से यह भी एक ब्रह्मविद्या है । यह चिदाकाश अतिप्रकाशवान है तथा वह चिदाकाश अनादि है । उसकी उत्पत्ति तथा उसका विनाश नहीं होता । जिस आकाश की उत्पत्ति तथा विनाश की बात कही गयी है, वह आकाश तो तमोगुण का कार्य है और अंधकार रुप है, वह लीन हो जाता है, परन्तु सबका आधार जो चिदाकाश है, वह लीन नहीं होता । इस प्रकार आपके प्रश्न का उत्तर दिया गया है । अब उसमें किसी को शंका रही हो तो पूछिए । तब वह वेदान्ती ब्राह्मण तथा समस्त हरिभक्त बोले कि - 'अब किसी को लेशमात्र भी संशय नहीं रहा।'
इति वचनामृतम् ।। ४६ ।।