संवत् १८६ की माघ कृष्ण तृतीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन के ऊपर की मंजिल के बरामदे में कथावाचन करवा रहे थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस कथा में ऐसा प्रसंग आया कि सांख्य, योग, वेदान्त तथा पंचरात्र, इन चार शास्त्रों द्वारा जो पुरुष भगवान के स्वरुप को समझ लेता है, वही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है । तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा कि - ''हे महाराज ! इन चार शास्त्रों द्वारा भगवान को किस प्रकार जानना चाहिए ? यदि इन चार शास्त्रों द्वारा भगवान को न जाना जा सके तो उसमें कौन-सी न्यूनता रहती है, यह बताइए।'' तब श्रीजी महाराज बोले - ''सांख्य शास्त्र भगवान को चौबीस तत्त्वों से परे पच्चीसवाँ बताता है । चौबीस तत्त्व जिस प्रकार भगवान के बिना कुछ भी करने में समर्थ नहीं करने में समर्थ नहीं हो पाते । इसलिए इनकी भी चौबीस तत्त्वों के भीतर ही गणना की जाती है तथा जीव-ईश्वर भी भगवान के बिना कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाते । इसलिए इनकी भी चौबीस तत्त्वों के भीतर ही गणना क जाती है तथा जीव-ईश्वर भी भगवान के बिना कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाते । इसलिए इनकी भी चौबीस तत्त्वों के भीतर ही गणना की जाती है तथा जीव-ईश्वर सहित ऐसे जो चौबीस तत्त्व हैं, उन्हें क्षेत्र कहा जाता है और पच्चीसवें जो भगवान हैं, उन्हें क्षेत्रज्ञा कहते हैं । योगशास्त्र जो भगवान को छब्बीसवां तथा मूर्तिमान बताता है और जीव-ईश्वर को पच्चीसवां कहता है तथा चौबीस तत्त्वों को पृथक् बताता है । उसका यह निर्देश भी है कि इन ततवों से अपनी आत्मा को पृथक समझकर भगवान का ध्यान करते रहना चाहिए । वेदान्त शास्त्र तो भगवान को सबका कारण, सर्वव्यापक, सर्वाधार, निर्गुण, अद्वैत, निरंजन तथा कर्ता होने पर भी अकर्ता, प्राकृत विशेषण रहित तथा दिव्य विशेषण सहित बताता है । पंचरात्र शास्त्र ने भगवान के संबंध में यह बताया है कि श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नारायण ही वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न के नाम से चतुर्व्यूह रुप में रहते हैं और पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं । जो पुरुष उनकी नव प्रकार की भक्ति करता है उसका कल्याण होता है । इस प्रकार, ये चार शास्त्र भगवान के संबंध में जैसा वर्णन करते हैं, उसे यथार्थ रुप में समझनेवाला पुरुष ही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है । यदि अन्य तीन शास्त्रों को छोडकर जो पुरुष केवल सांख्य शास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरुप को समझता है तो बाधा उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि 'सांख्यशास्त्र में जीव को ईश्वरी तत्त्वों से अलग नहीं बताया गया है, इसलिए जब तत्त्वों का निषेध करके तत्त्वों से अपनी जीवात्मा को पृथक समझा जाय तभी पच्चीसवाँ अपनी जीवात्मा को समझा जा सकेगा, किन्तु भगवान को नहीं समझा जा सकता । यदि अकेले योगशास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरुप को समझा जाय तो यह दोष आता है कि 'योगशास्त्र ने भगवान को मूर्तिमान बताया है । वह उन्हें परिच्छिन्न मानता है, किन्तु अंतर्यामी और परिपूर्ण नहीं मानता ।' जो एकमात्र वेदान्तशास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरुप को समझता है तो यह दोष आता है कि 'भगवान को जिस प्रकार सर्वकारण, सर्वव्यापक तथा निर्गुण कहा गया है, उन्हें वह निराकार समझता है, लेकिन भगवान के प्राकृत कर - चरणादि रहित और दिव्य अवयव वाले सनातन आकार को नही मानता ।' यदि अकेले पंचरात्रशास्त्र द्वारा ही भगवान के स्वरुप को समझा जाय तो यह दोष उपस्थित हो जाएगा कि 'भगवान के अवतारों के संबंध में जो भक्ति कही गयी है उससे मनुष्य भाव आता है तथा एकदेशस्थ भाव का ज्ञान होता है, लेकिन इस के द्वारा भगवान के सर्वान्तर्यामी तथाा परिपूर्ण होने के भाव का बोध नहीं हो पाता।' यदि इन समस्त शास्त्रों द्वारा भगवान को न समझा जाय तभी ऐसे दोष आ जाते हैं । यदि इन सबके माध्यम से भगवान के स्वरुप को समझा जाय तो एक शास्त्र के ज्ञान द्वारा आनेवाले दोष का अन्य शास्त्र का बोध होने से निराकरण हो जाता है । इसलिए, इन चारों शास्त्रों के माध्यम से भगवान के स्वरुप को समझनेवाले पुरुष को ही परिपूर्ण ज्ञानी कहा जाता है । जो इन चारों शास्त्रों में से एक शास्त्र को छोड दे, उसे पौन ज्ञानी कहते हैं । दो शास्त्रों को छोडनेवाला पुरुष आधा ज्ञानी कहलाता है और तीन शास्त्रों को छोडनेवाले पुरुष को पाव ज्ञानी कहा जाता है । जो इन चारों शास्त्रों को छोडकर अपने मन ही कल्पना से चाहे किसी भी तरह शास्त्रों को छोडकर अपने मन ही कल्पना से चाहे किसी भी तरह शास्त्रों को समझकर उसका पालन करता है, वह भले ही वेदान्ती हो या उपासनावाला, उन दोनों को ही पथभ्रष्ट माना जाएगा और उनमें से किसी को भी कल्याण का मार्ग नहीं मिल पाएगा । इस कारण वेदान्ती दंभी ज्ञानी है, तथा उपासनावाला भी दंभी भक्त कहलाता है ।
इति वचनामृतम् ।। ५२ ।।