संवत् १८६ की माघ कृष्ण नवमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने श्वेत चूडीदार पाजामा और सफेद अंगरखा पहना था तथा जरीदार पल्लेवाला कुसंुभी रंग का भारी शेला कमर पर बाँधा था, सिर पर जरीदार पल्लेवाला भारी नीले रंग का फेंटा धारण किया था । पाग में पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। उन्होंने कंठ में पुष्पों के हार पहने थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''कोई प्रश्न करिए !'' तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - ''कोई तो सत्संग में रहकर दिन-प्रतिदिन उन्नति करता रहता है और किसी की तो सत्संग में रहने पर भी दिन-प्रतिदिन अवनति होती रहती है । इसका क्या कारण है ?'' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - ''वरिष्ठ साधु में अवगुण देखनेवाले पुरुष की अवनति होती रहती है और उनके गुणों को ग्रहण करनेवाले का 'अंग' बढता रहता है और भगवान में उसकी भक्ति भी बढती जाती है । इसलिए, ऐसे साधु में अवगुण नहीं देखने चाहिए, बल्कि उनके गुणों को ही ग्रहण करना चाहिए । यदि साधु परमेश्वर द्वारा निर्धारित पांच नियमों की मर्यादाओं में से किसी मर्यादा का उल्लंघन करे तभी उसका अवगुण समझना चाहिए, परन्तु किसी नियम में तो परिवर्तन न हुआ हो और उसकी स्वाभाविक प्रकृति अच्छी मालूम न होती हो तो उसे देखकर यदि कोई उस साधु के अन्य अनेक गुणों की उपेक्षा करके उसका केवल अवगुण ही देखेगा तो उसके ज्ञान-वैराग्य आदि शुभ गुण कम हो जाते हैं । इसलिए, नियमों के पालन में कोई अंतर दिखाई पडने पर ही उसका अवगुण समझना चाहिए, किन्तु भगवान के भक्त का यों ही अवगुण नहीं देखना चाहिए । यदि कोई पुरुष साधु का अवगुण नहीं देखता तो उसके शुभ गुणों की दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती रहती है ।''
इति वचनामृतम् ।। ५३ ।।