संवत् १८६ के माघ महीने की कृष्ण एकादशी को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे में उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, जरी के पल्लेवाला नीले रंग का 'रेटा' (शाल) ओढा था और आसमानी रंग का जरीदार रेश्मी फेंटा सिर पर बाँधा था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया - ''हे महाराज ! श्रीमद् भागवत के एकादश स्कन्ध में जनक राजा तथा नवयोगेश्वर के संवाद द्वारा बताये गए भागवत धर्म का पोषण कैसे होता है और जीव के लिए मोक्ष का द्वार किस प्रकार खुला रह सकता है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा माहात्म्य ज्ञान सहित भगवद् भक्ति करनेवाले भगवान के एकान्तिक साधु के सत्संग से भागवत धर्म का पोषण होता है तथा ऐसे साधु के सान्निध्य से ही जीवों के लिए मोक्ष का द्वार भी खुल जाता है । यही बात कपिलदेव भगवान ने देवहुति से कही है कि -
'प्रसंगमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ।।'
अर्थात् 'उस जीव को अपने संबंधियों से जैसा दृढ लगाव रहता है वैसा का वैसा ही संग यदि भगवान के एकान्तिक साधु से रहे तो उस जीव के लिए मोक्ष का द्वार खुल जाता है ।
बाद में शुकमुनि ने पूछा कि - ''चाहे कैसा भी आपत्तिकाल आ जाय, तो भी स्वधर्म से विचलित न होनेवाले पुरुष को किस लक्षण द्वारा पहचाना जाय ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''जिस परमेश्वर के वचनों के पालन की चिन्ता रहती है तथा छोटे-बडे वचन का लोप न करने का जिसका स्वभाव होता है, उसके सम्मुख चाहे कैसा ही आपत्काल आ जाय, तो भी वह धर्मच्युत नहीं होता । इसलिए, जिस वचन पालन में दृढता रहती है, उसका ही धर्म तथा सत्संग सुदृढ रहता है ।''
इति वचनामृतम् ।। ५४ ।।