वचनामृतम् ५६

संवत् १८६ की माघ कृष्ण द्वादशी को संध्या के समय श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, जरीदार नीले रंग का 'रेटा' (शाल) ओढा था और सिर पर घुमावदार पल्ले का रेटा बांधा था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मानियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी और मुनि नारायण धुन करते हुए झाझ-मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''अब कीर्तन बंद रखिए और थोडी देर तक प्रश्नोत्तर भी करें ।'' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज पुनः बोले कि अच्छा, मैं प्रश्न करता हूँ - ''श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में चार प्रकार के भक्त बताए हैं, उनमें ज्ञानी को अधिक श्रेष्ठ बताया है । फिर भी, जब इन चारों प्रकार के भक्तों का भगवान के स्वरुप का निश्चय एक समान ही रहता है तब ज्ञानी को श्रेष्ठ क्यों बताया गया है ?'' मुनियों ने इन प्रश्न का उत्तर दिया, किन्तु वे यथेष्ठ उत्तर न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''ज्ञानी तो ब्रह्मभाव की स्थिति के अनुसार आचरण करता है तथा भगवान की महिमा को यथार्थ रुप में जानता है । इसलिए, इसे भगवान के स्वरुप के सिवा मन में अन्य प्रकार की कोई कामना रहती ही नहीं है और तीन प्रकार के दूसरे भक्तों में यद्यपि भगवान का निश्चय तो रहता है फिर भी वे भगवान की महिमा यथार्थ रुप से नहीं जानते, इस कारण इनमें भगवान के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की भी कामना बनी रहती है, इसलिए वे ज्ञानी के समान नहीं होते । इसलिए, भगवान के भक्त के मन में भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की कामना रहे तो यह एक बडी कमी है । जिसकी किसी तरह की वासना नहीं रहती, किन्तु तीव्र वैराग्यवान होने पर भी जो वैराग्य के योग से अहंकार पूर्ण आचरण करता है तो यह भी उसमें एक बडी कमी है । यदि कोई अत्यन्त आत्मज्ञान अथवा भगवान में दृढ भक्ति रहने के बल के घमंड के कारण गरीब हरिभक्त के प्रति नम्र व्यवहार नहीं करता या उसके समक्ष विनयपूर्ण वचन नहीं बोलता तो यह भी उसमें बडा दोष है । इस दोष के कारण उस हरिभक्त के अंग की वृद्धि नहीं हो पाती । जिस प्रकार कोई संगतराश कुआं खोदता हो और नीचे के भाग में पत्थर की आवाज यदि कम हो तो वह यह कहेगा कि पानी अधिक होगा किन्तु जो ऊपर से तो ज्यादा आवाज होती हो और अंदर से खुदाई करने पर अग्नि की चमक दिखायी पडे तो संगतराश यह कहेगा कि इस कुएँ में पानी होगा, लेकिन कम होगा? उसी प्रकार जो पुरुष ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति के घमंड से उन्मत्त रहता है, वह यद्यपि बडा तो कहलाता है, फिर भी उसमें निरभिमान भक्त के सदृश महान गुण नहीं रहता । इसलिए, जो भगवान को प्रसन्न करने का इच्छुक हो उसे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा किसी अन्य श्रेष्ठ गुण के रहने के दंभ में उन्मत्त नहीं रहना  चाहिए । तभी उस पुरुष के हृदय में प्रकट श्रीकृष्ण नारायण प्रसन्न होकर निवास करते हैं ।'
         
फिर मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज ! ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा अन्य शुभ - गुणों के योग से यदि अभिमन उत्पन्न हो जाय तो उसे किस उपाय द्वारा टालना चाहिए ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'भगवान के भक्तों के माहात्म्य को जानकर स्वयं उन्हें नमस्कार करना चाहिए और उनकी सेवा - चाकरी करनी चाहिए । यदि हृदय में अभिमान का कोई संकल्प उत्पन्न हो जाय तो उसके स्वरुप का पता लगाकर वैचारिक बल रखना चाहिए, उससे अभिमान टल जाता है । यदि अतिशय प्रेमलक्षणा भक्ति के फलस्वरुप भगवान भक्त के वश में हो जायें, तब भक्त के हृदय में अगर उस भक्ति का घमंड पैदा हो जाय तो उसमें यह भी एक बडी कमी रहेगी । यदि आत्मज्ञान और वैराग्य का अभिमान रहता है तो उसके फलस्वरुप देहात्बुद्धि की दृढ होती है । इसलिए, भगवान के भक्तों को किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं रखना चाहिए, भगवान को प्रसन्न करने का यही उपाय है । जो अंतर्दृष्टिवाले भगवान के भक्त हों वे  यदि आत्मनिरीक्षण द्वारा अपने हृदय को टटोलकर देखेंगे तो उन्हें थोडा-सा भी अभिमान रहने पर अंतःकरण में विराजमान भगवान की मूर्ति की नजर कठोर दिखायी पडेगी और निर्मान - भावना रहने पर भगवान की मूर्ति की दृष्टि अतिशय प्रसन्न प्रतीत होगी। इसलिए, भगवान के भक्तों को वैचारिक बल रखकर किसी भी प्रकार के अभिमान को उत्पन्न होने का मौका नहीं देना चाहिए । यदि अभिमानवश ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का अस्तित्व रहेगा तो उसे सोने जैसी मिलावट वाला समझा जाएगा । जिस प्रकार, सोने में मिलावट होने पर उसे पन्द्रह अंश, उससे अधिक मिलावट होने पर बारह अंश और उससे बहुत ज्यादा मिलावट होने पर आठ अंशवाला सोना कहा जाता है, उसी तरह उन भक्तों के ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति में जैसे - जैसे अहंकार का मिश्रण होता जाएगा, वैसे - वैसे ये तीनों ही कम होते जाएंगे । इसी कारण अभिमान रहित ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को सोलह अंशवाले सोने के समाने माना गया है तथा वे अभिमान युक्त रहने पर ऊपर से तो शोभायमान दिखायी पडते हैं, किन्तु आंतरिक रुप से उनमें अधिक शक्ति नहीं रहती । इस प्रसंग में एक और दृष्टान्त है वह यह है कि जिस प्रकार पचास कोटि योजन पृथ्वी - समुद्र, पर्वत तथा समस्त भूतप्राणि मात्र की आधार है, इसलिए अधिक शक्तिशाली दिखायी पडती है उससे जल भी बहुत शक्तिशाली मालूम होता है, उस जल में पृथ्वी कंडे की भांति तैरती रहती है और जल की अपेक्षा तेज में अधिक शक्ति प्रतीत होती है तथा तेज की अपेक्षा वायु में ज्यादा ताकत जान पडती है, किन्तु आकाश में तो कोई भी शक्ति नहीं मालूम होती, फिर भी वह सबसे अधिक शक्तिशाली प्रतीत होता है, क्योंकि आकाश इन चारों का आधार रुप है, उसी प्रकार उन निर्मानी भक्तों के ज्ञान, वैराग्य एवं भक्तिभाव आकाश के सदृश शक्तिशाली हैं । ऊपर से तो वास्तव में कुछ भी प्रतीत नहीं होता, किन्तु निर्मानी भक्त सबसे श्रेष्ठ हैं । जिस प्रकार बालक को किसी भी प्रकार का अभिमान - जन्य संकल्प नहीं होता, उसी प्रकार साधु अपनी कितनी ही पूजा प्रतिष्ठा होने पर भी बालक से समान अभिमान रहित रहता है । फिर बाद में मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया - 'इन्द्रियों, अंतःकरण, प्राण तथा जाग्रत स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्थाओं और स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण, इन तीन शरीरों से जीव का स्वरुप भिन्न रहता है, ऐसा सत्संग में सुनकर दृढ निश्चय किया है, फिर भी इन्द्रियों तथा अंतःकरण के साथ मिलकर सुख रुप जीवात्मा परमात्मा का भजन - स्मरण करती हुई भी संकल्पों के योग से दुखी क्यों हो जाती है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'कितने ही सिद्ध, सर्वज्ञा तथा देवता आदि होते हैं, जो अनंत प्रकार की महत्ता तथा परम पद को भगवान की उपासना के बल पर प्राप्त करते हैं, परन्तु उपासना के बिना कोई भी साधना सिद्ध नहीं होती । इसलिए, शास्त्रों में आत्मा एवं अनात्मा का विवरण समझकर अथवा किसी बडे संत के मुख से बात सुनकर यह समझना कि मैं आत्मा एवं अनात्मा का विवेक प्राप्त कर लूंगा, विवेकपूर्ण नहीं है । वास्तविक बात तो यह है कि इस जीव को अपने इष्टदेव परमेश्वर में जितनी निष्ठा रहती है उतना ही आत्मा - अनात्मा का विवेक रहता है, परन्तु इष्टदेव के बल के बिना तो कोई भी साधना सिद्ध नहीं होती । फिर भी, जिसे गोपियों जैसी प्रेमलक्षणा भक्ति उपलबध है, उसकी तो समस्त साधनाएँ पूर्ण हो चुकी है, किन्तु जिसे ऐसा प्रेम प्राप्त न हो सका है, उसे तो भगवान की महिमा समझ लेनी चाहिए कि भगवान तो गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मधाम के स्वामी हैं और वे भक्तों के सुख के लिए ही मनुष्य जैसे दिखायी पडते हैं, परन्तु गोलोक आदि उनके धामों में उनकी मूर्ति एक - एक नख में कोटि - कोटि सूर्यो के प्रकाश से युक्त होती है मृत्युलोक में मनुष्य भगवान की सेवा करता है और दीपक करता है तब उसके आगे प्रकाश होता है । परन्तु वे तो सूर्य - चन्द्रादि सबको प्रकाश प्रदान करते हैं और गोलोकादि धामों में तो राधिका, लक्ष्मी आदि उनके निजी भक्त उनकी निरन्तर सेवा करते रहते हैं, ऐसे ये भगवान हैं। जब ब्रह्मांडों की प्रलय होती है तब ये एकमात्र प्रकट भगवान ही रहते हैं और उसके पश्चात् सृष्टि-रचना के समय में भी ये भगवान ही प्रकृति पुरुष द्वारा अनंतकोटि ब्रह्मांडों को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार भगवान की महिमा का विचार करना चाहिए । यही आत्मा तथा अनात्मा के विवेक का कारण है । भगवान के माहात्म्य सहित भगवान में भक्त की जितनी निष्ठा रहती है उतनी ही उसके हृदय में वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है । इसलिए, अन्य साधनों के बल का परित्याग करके एकमात्र भगवान की उपासना का बल ही रखना चाहिए । जो ऐसा भक्त होता है, वह तो यही समझता है कि चाहे कैसा ही पापी हो, वह यदि अंत समय में स्वामिनारायण के नाम का उच्चारण करता है तो समस्त पापों से मुक्त होकर ब्रह्मधाम में निवास करता है, तब, यदि भगवान का आश्रित जन उन भगवान के धाम को प्राप्त हो जाय तो इसमें संशय ही क्या है रु ऐसा माहात्म्य समझना चाहिए । इसलिए, भगवान के भक्त को भगवान की उपासना के बल को सत्संग द्वारा दिन - प्रतिदिन बढाते रहना चाहिए ।

इति वचनामृतम् ।।५६।।