विक्रम संवत् १८६ की फाल्गुन शुक्ल - द्वितीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में साधुओं के स्थान पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'जिसे प्रश्नोत्तर करना आता हो उसे एक-एक प्रश्न करना चाहिए ।' तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज मोक्ष का असाधारण कारण क्या है ?' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के स्वरुप का ज्ञान तथा भगवान के माहात्म्य का जानना, ये ही मोक्ष के दो असाधारण कारण हैं । इसके पश्चात मुक्तानंद स्वामी ने पूछा 'भगवान में जो स्नेह है उसका रुप क्या है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'कि स्नेह का रुप तो यह है कि स्नेह में किसी भी प्रकार का विचार नहीं चाहिए । यदि गुण पर विचार करके स्नेह किया जाएगा तो उसका वह स्नेह अवगुण दिखने पर टूट जाएगा । इसलिए, स्नेह जैसा हुआ हो उसे वैसा ही रहने देना चाहिए । परन्तु, बार-बार विचार करके स्थापन - उत्थापन नहीं करना चाहिए । यदि गुण पर विचार करके स्नेह किया जाता है तो उसका विश्वास ही नहीं रहता । इसलिए, देह के संबंधियों के साथ किये जानेवाले स्नेह के समान ही भगवान के माहात्म्य को जानकर जो स्नेह होता है वह तो दूसरी ही तरह का है, ऐसा समझना चाहिए ।
तत् पश्चात शिवानंद स्वामी ने पूछा - 'सत्संग में रहने की आकांक्षा तो है, फिर भी जो अनुचित स्वभाव है, वह क्यों नहीं टलता ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो स्वभाव सत्संग में विघ्न डालता हो, उसका अभाव जिसके लिए जब तक न हो जाय, तब तक उसे सत्संग की पूर्ण आकांक्षा कहाँ रहती है ? और उस स्वभाव को भी क्या पूर्ण शत्रु समझ लिया है ? इस प्रसंग में एक दृष्टान्त है जैसे कोई पुरुष अपना मित्र हो और उसीने अपने भाई को मार डाला हो तो फिर उसके साथ मित्रता नहीं रहती और तब वह उसका सिर काटने के लिए तैयार हो जाता है, क्योंकि मित्र की अपेक्षा भाई संबंध - अधिक है, वैसे ही उसे अपना स्वभाव वर्तमान में बाधा डालकर सत्संग से विमुख करता है तो भी उस पर वैरभाव नहीं रहता तथा उस स्वभाव पर क्रोध नहीं आता, इसलिए उसे सत्संग में पूरा स्नेह नहीं रहता । वस्तुतः मनुष्य को अपने भाई में जैसा स्नेह रहता है वैसा यदि सत्संग में रहे तो वह अनुचित स्वभाव को तत्काल टाल सकता है, क्योंकि जीव तो अति समर्थ है, मन और इन्द्रियाँ क्षेत्र हैं तथा जीव तो इनका क्षेत्रज्ञा है, इसलिए जो कुछ वह करता है, वही होता है ।
इति वचनामृतम् ।। ५७ ।।