संवत् १८६ की फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन संध्याकालीन आरती के समय स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों के स्थान पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'प्रश्न कहिए ।' तब मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'हे, महाराज ! भजन - स्मरण करते समय भगवान के भक्त के हृदय में रजोगुण तथा तमोगुण का वेग रहने से भजन एवं स्मरण का सुख प्राप्त नहीं होता । कृपया बतलाइए कि इन गुणों का वेग कैसे टल सकता है ?' फिर श्रीजी महाराज बोले कि - 'इन गुणों की प्रवृत्ति कारण तो देह, कुसंग तथा पूर्व संस्कार, ये तीन हैं । उसमें देह के योग से जो गुण विद्यमान रहते हो, वे तो आत्मा अनात्मा के विचार द्वारा टल जाते हैं तथा कुसंग द्वारा प्रवृत्त गुण संत का संग करने से दूर हो जाते हैं, किन्तु रजोगुण एवं तमोगुण का वेग इन दोनों के द्वारा भी नहीं टलता । उनका पूर्वजन्म के किसी अशुभ- संस्कार के योग के कारण टलना अत्यन्त कठिन रहता है ।'
तब आनंदानंद स्वामी ने पूछा - 'यदि पूर्वजन्म के संस्कार मलिन हो तो वे कैसे टल सकते हैं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिस पर परमपुरुष की कृपा रहती है उस पर सभी तरह के मलिन संस्कार नष्ट हो जाते हैं और उनके प्रसन्न रहने से रंक राजा हो जाता है तथा किसी भी प्रकार का अनिष्ट कर प्रारब्ध शुभ हो जाता है और उसके समक्ष उपस्थित होनेवाले किसी भी विकट विघ्न का नाश हो जाता है ।
पुनः आनन्द स्वामी ने पूछा कि - 'किस प्रकार के उपाय करने से महापुरुष प्रसन्न होते हैं ?' तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'सबसे पहली बात तो यह है कि महान संत के प्रति निष्कपट भाव से व्यवहार करने, उसके पश्चात काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा, अहंकार और ईर्ष्या को छोडने, संत का सेवक होकर रहने तथा अंतःकरण में मान की भावना रहने पर भी दैहिक रुप से सब को वंदन करने से महान संत उसससे प्रसन्न रहते हैं ।'
इसके बाद महानुभावानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज, सत्संग में रहते हुए समस्त अवगुणों का नाश हो जाय और भगवान की भक्ति दिन - प्रतिदिन बढती रहे, इसका क्या उपाय है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'कोई भी भक्त महापुरुष का गुण जैसे - जैसे ग्रहण करता जाता है, वैसे - वैसे उसकी भक्ति में वृद्धि होती रहती है और परमपुरुष को अत्यन्त निष्कामी समझनेवाला जीव स्वयं कुत्ता जैसा कामी होने पर भी निष्कामी बन जाता है, परन्तु महापुरुष में कामुकता का दोष देखनेवाला मनुष्य निष्कामी होते हुए भी घोर कामी हो जाता है तथा महापुरुष में क्रोध एवं लोभ वृत्ति की कल्पना करनेवाला स्वयं क्रोधी और लोभी हो जाता है तथा महापुरुष को अतिशय निष्कामी, निर्लोभी, निःस्वादी, निर्मानी और निःस्नेही समझनेवाला पुरुष इन समस्त विकारों से मुक्त होकर दृढ हरिभक्त बन जाता है । उस दृढ हरिभक्त का क्या लक्षण है ? वह यह है कि अच्छे शब्द, स्पर्श, रुप रस और गंध नामक पांच विषयों की दुखदायी वस्तुओं के सहज अभाव के समान जिसमें सहज कमी हो जाती है और एकमात्र परमेश्वर के स्वरुप में ही जिसकी अचल निष्ठा रहती है, उसे ही दृढ हरिभक्त समझना चाहिए । ऐसा दृढ हरिभक्त होने का केवल यही उपाय है कि परमेश्वर का दासानुदास होकर रहे और यह समझे कि ये समस्त भक्त बडे हैं और मैं तो सबसे छोटा हूँ । ऐसा समझते हुए उसे हरिभक्त का दासानुदास होकर रहना चाहिए । जो पुरुष इस प्रकार का आचरण करता है, उसके समस्त विकारों का नाश हो जाता है और दिन - प्रतिदिन उसके ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि शुभ - गुण बढते रहते हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। ५८ ।।