संवत् १८६ के फाल्गुन महीने की शुक्ल चतुर्दशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, मस्तक पर रेशमी किनारीदार श्वेत धोती बांधी थी और उनके ललाट पर चंदन का तिलक लगा हुआ था । उस समय उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश - देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'अब प्रश्नोतर करिए ।' तब मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'हे महाराज, भगवान से असाधारण प्रेम होने का क्या कारण है ?' उसके बाद श्रीजी महाराज बोले कि - 'सबसे पहले तो भगवान के संबंध में ऐसा विश्वास होना चाहिए कि जो मुझे मिले हैं, वे निश्चित रुप से भगवान हैं । आस्तिक होकर भगवान के साथ-साथ उसे भगवान के ऐश्वर्य को जानना चाहिए कि ये भगवान ब्रह्मधाम, गोलोक तथा श्वेतद्वीप आदि समस्त धामों के स्वामी और अनंत कोटि ब्रह्मांडों के अधिष्ठाता हैं तथा सबके कर्ता हैं । वह पुरुष काल, कर्म, माया, तीन गुणों, चौबीस तत्त्वों तथा ब्रह्मादिक देवों में से किसी को भी इस ब्रह्मांड का कर्ता नहीं मानता, परन्तु एकमात्र भगवान पुरुषोत्तम को ही इसका कर्ता और सबका अंतर्यामी समझता है । इस प्रकार के विवेक के साथ प्रत्यक्ष भगवान के स्वरुप में जो निश्चय रहता है, वही परमेश्वर में असाधारण स्नेह रहने का कारण है ।'
इसके बाद मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'भगवान की ऐसी महिमा जानने पर भी यदि असाधारण स्नेह नहीं होता तो उसका क्या कारण है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि वह भगवान की ऐसी महिमा जान लेता है तो भगवान से उसका असाधारण स्नेह बना रहेगा, किन्तु वह जानता नहीं । जैसे हनुमान जी में अपार बल तो था, किन्तु किसी के द्वारा बताये बिना उन्हें उसकी प्रतीति नहीं हुई । इसी प्रकार प्रलम्बासुर जब बलदेवजी को लेकर जाने लगा तब उनमें बल तो अपार था, किन्तु वे स्वयं नहीं जानते थे । बाद में जब आकाशवाणी द्वारा उन्हें सूचित किया गया, तब यह बात मालूम हो गयी । उसी प्रकार उस भक्त को भगवान में असाधारण प्रीति तो है, परन्तु वह जान नहीं पाता ।'
तब फिर मुक्तानंद स्वामी ने पूछा कि - 'इस प्रीति के बल को बताये जाने का क्या कारण है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'सत्संग तथा सत् - शास्त्रों का श्रवण करते रहने से उसे भगवान में रहनेवाली असाधारण प्रीति की प्रतीति हो जाती है ।' इसके पश्चात मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'देश, काल तथा क्रिया के शुभ अथवा अशुभ होने का कारण संग है या अन्य कोई ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'पृथ्वी को देश कहते है और वह सभी स्थानों पर एक समान रहता है तथा काल भी एक समान है, परन्तु अतिशय महान समर्थ पुरुष जिस देशमें रहते हों उनके प्रताप से अशुभ, देश, काल, क्रिया, सभी शुभ हो जाते हैं । घोर पापी पुरुष जिस देश में रहते हों तो, उनके योग से अच्छा देश, अच्छी क्रिया और अच्छा काल, सभी अशुभ हो जाते हैं । यदि वे पुरुष अतिशय समर्थ होते हैं तो समस्त पृथ्वी में देश, काल और क्रिया को अपने स्वभाव के अनुसार परिवर्तित कर डालते हैं । यदि उनसे दुर्बल पुरुष हो तो वह एक देश में, उससे कमजोर व्यक्ति एक ग्राम में, उससे अशक्त पुरुष एक मोहल्ले और अपने घर में उनका प्रसार करता है, इस तरह, शुभ - अशुभ - देश, काल तथा क्रिया के कारण सत् - असत् दो प्रकार के पुरुष है ।'
इति वचनामृतम् ।। ५९ ।।