संवत् १८६ की फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसो के स्थान पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, श्वेत चादर ओढी थी, मस्तक पर सफेद पाग बाँधी थी, उसमें सफेद तुर्रे लगे हुए थे तथा उनके कंठ में श्वेत पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे । उस समय उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''समस्त साधनाओं की अपेक्षा वासना को मिटाने की साधना बडी है । उस वासना को टालने का उपाय यह है कि शब्द, स्पर्श, रुप रस और गंध नामक पांच विषयों में जितनी अपनी तृष्णा है, उस पर विचार करना चाहिए कि भगवान में मेरी जितनी वासना है उतनी ही क्या जगत में भी है अथवा उससे न्यून या अधिक है ? उसकी परीक्षा करनी चाहिए कि भगवान की बात सुनने में श्रोत्रेन्द्रिय जितनी लुब्ध होती है, उतनी ही यदि जगत की बात सुनने में आकृष्ट होती हो तो यह समझना चाहिए कि 'भगवान तथा जगत में समान वासना है ।' इसी प्रकार स्पर्श, रुप, रस और गंध-विषयों की स्थिति का पता लगाना चाहिए । इस प्रकार जब वह पता लगते लगाते जगत की वासना को कम करता रहता है तथा भगवान संबंधी वासना को बढाता जाता है, तब उसके परिणाम स्वरुप पंच विषयों में उसकी समबुद्धि हो जाती है और उसके बाद निंदा एवं स्तुति समान लगती है तथा अच्छा स्पर्श और बुरा स्पर्श एकसमान प्रतीत होता है । उसी तरह अच्छे रुप और खराब रुप, बालिकाओ, युवतियों एवं वृद्धा, स्त्रियों तथा कचरा और कंचन में समान रुप से प्रतीति होने लगती है । जब इस प्रकार स्वाभाविक रुप से आचरण होता रहता है तब समझना चाहिए कि वासना को जीत लिया गया है । ऐसा वासना रहित आचरण ही एकान्तिक धर्म कहलाता है । यदि अल्प वासना भी रह जाय तो समाधि की स्थिति होने पर भी वासना उसे समाधि में पीछे की ओर खींच लाती है । इसलिए, वासना टालनेवाले को ही एकान्तिक भक्त कहा गया है ।'' तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - ''वासना को टालने का क्या उपाय है ?'' इसके पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''उसके लिए आत्मनिष्ठा की दृढता होनी चाहिए, पंच विषयों की तुच्छता समझनी चाहिए तथा भगवान का अतिशय माहात्म्य समझना चाहिए कि 'भगवान बैकुंठ, गोलोक एवं ब्रह्मधाम, इन समस्त धामों के स्वामी हैं, इसलिए मैं ऐसे भगवान को प्राप्त करके तुच्छ विषयों के सुख में अनुरक्ति क्यों रखूं ?' इस प्रकार भगवान की महिमा पर ध्यान देना चाहिए । इसके पश्चात पुनः यह विचार करना चाहिए कि 'भगवान का भजन करने पर भी यदि कोई कमी रह जाएगी और भगवान की प्राप्ति नहीं हो पाएगी तथा भगवान यदि इन्द्रलोक एवं ब्रह्मलोग में रखेंगे, तो भी इसलोक की अपेक्षा वहाँ करोड गुना अधिक सुख रहेगा ।' ऐसा विचार करके भी इस संसार के तुच्छ सुख की वासना से रहित तो जाना चाहिए। इस प्रकार भगवान की महिमा जानकर जब कोई पुरुष वासना रहित हो जाता है तब उसे प्रतीत होता है कि 'मुझमें तो वासना कभी भी नहीं रही थी और बीच में तो मुझे कुछ भ्रम-जैसा हो गया था, परन्तु मैं तो सदा वासनारहित हूँ ।' इस प्रकार का एकान्तिक धर्म तो ऐसे निर्वासनिक पुरुषों तथा भगवान में अपनी स्थिति बनाये रखनेवालों के वचनों से ही सुलभ हो पाता है, परन्तु वह मात्र ग्रंथ में लिखा रहने से प्राप्त नहीं होता । यदि कोई ऐसा सुनकर ही ज्यों की त्यों बात करने जाय तो भी वह उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए एकान्तिक धर्म की प्राप्ति केवल उसीके द्वारा हो सकती है, जिसकी एकान्तिक धर्म में स्थिति सुदृढ हो गयी हो ।''
इति वचनामृतम् ।। ६० ।।