वचनामृतम् ६१

संवत् १८६ की फाल्गुन कृष्ण तृतीया को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछे हुए पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सिर पर रेशमी किनारवाली श्वेत धोती बांधी थी, सफेद चादर ओढी थी और श्वेत दुपट्टा धारण किया था । कंठ में सफेद फूलों के हार पहने थे । उनकी पाग में बांये भाग की ओर श्वेत पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।

तत् पश्चात मुक्तानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - ''काम, क्रोध, लोभ तथा भय के योग से भी धैर्य न टूटे, इसका क्या उपाय है ?'' फिर श्रीजी महाराज बोले - ''मैं देह नहीं, बल्कि शरीर से भिन्न और सबको जाननेवाला आत्मा हूँ'' ऐसी आत्मनिष्ठा जब सुदृढ हो जाती है तब किसी भी तरह धैर्य नहीं टूटता और आत्मनिष्ठा के बिना यदि अन्य उपाय किये जायेंगे तो भी धैर्य नहीं रहेगा ।''
         
इसके पश्चात ब्रह्मानंद स्वामी ने पूछा - ''यदि आत्मनिष्ठा रहे तो वह अंत समय में कितनी सहायता करती है ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''यदि नदी को तैरकर पार करना है तो ऐसा काम तो वही पुरुष कर सकता है, जिसे तैरना आता हो, किन्तु जिसे तैरना न आता हो वह तो खडा ही रहेगा। तब समुद्र से होकर जाना हो तब तो दोनों तरह के पुरुषों को जहाज की जरुरत पडेगी । उसी प्रकार ठंड, धूप, भूख, प्यास, मान, अपमान, सुख एवं दुःख रुपी नदी को आत्मनिष्ठावाला पुरुष तैरकर पार कर लेता है, परन्तु मृत्यु समय तो समुद्र के समान है । इसलिए आत्म निष्ठावाले या आत्मनिष्ठाहीन, दोनों को हीभगवान के उपासनारुपी जहाज की आवश्यक्ता रहती है । अतएव अंतकाल में भगवान का दृढ आश्रय ही काम में आता है । अंत समय में आत्मनिष्ठा किसी काम नहीं आती, इसलिए भगवान की उपासना को सुदृढ रखना चाहिए ।'' तब मुक्तानंद स्वामी ने पुनः पूछा - ''भगवान के भक्त के मार्ग में सिद्धियाँ बाधक बन जाती हैं, तो क्या वे भगवान के निश्चय से डिगनेवाले के सामने ही बाधा आती हैं अथवा निश्चय वाले को आती है' तब श्रीजी महाराज बोले - ''ये सिद्धियाँ तो भगवान का परिपक्व निश्चय रखनेवाले के समक्ष ही उपस्थित होती हैं तथा अन्य पुरुषों के लिए तो ये दुर्लभ रहती हैं, भक्त की परीक्षा लेने के लिए ही भगवान इन सिद्धियों को भी प्रेरित करते हैं कि उसे मुझसे अधिकस्नेह है या सिद्धियों से ज्यादा लगाव है ?' इस प्रकार भगवान अपने भक्त की परीक्षा लेते हैं । यदि वह दृढ भक्त है तथा भगवान के सिवा किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करता तो भगवान ऐसे निर्वासनिक एकाण्तिक भक्त के वश में हो जाते हैं; जैसे वामनजी ने बलि राजा का त्रैलोक्य का राज्य ले लिया, चौदह लोकों को अपने दो चरणों से माप लिया और तीसरे कदम के लिए बलि राजा ने उन्हें अपना शरीर अर्पित कर दिया, इस प्रकार यद्यपि उसने भगवान को श्रद्धा सहित अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया तो भी भगवान ने बिना अपराध के उसे बांध दिया फिर भी वह भक्ति से विचलित नहीं हुआ, तब अपने प्रति उसकी ऐसी अनन्य भक्ति देखकर स्वयं भगवान उसके बंधन के अंतर्गत हो गये । भगवान ने तो बलि राजा को क्षण मात्र के लिए बांधा था, किन्तु वे तो उसकी भक्ति रुपी डोर से बंधे हुए हैं और आज भी भगवान बलि के दरवाजे पर अखंड रुप से खडे हुए हैं और वे बलिराजा की दृष्टि से पलमात्र के लिए भी ओझल नहीं होते । इस प्रकार, हम लोग भी अन्य समस्त वासनाओं को मिटाकर और भगवान को सर्वस्व अर्पित करके उनके दास होकर रहेंगे । ऐसा करने पर भी यदि भगवान हमें अधिक दुःख देंगे तो भी वे स्वयं हमारे वश में हो जायेंगे क्योंकि वे स्वतः भक्त वत्सल तथा कृपासिंधु हैं । वे अपनी ओर जिसकी दृढ भक्ति देखते हैं उसके अधीन स्वमेव हो जाते हैं । इसके पश्चात वे प्रेम-भक्तियुक्त भक्त की मन रुपी डोरी से बंध जाते हैं और उससे छूटने में समर्थ नहीं हो पाते । इस प्रकार, ज्यों-ज्यों भगवान हम लोगों को समर्थ कसौटी पर कसकर रखें त्यों-त्यों अधिक प्रसन्न होना चाहिए कि 'भगवान जैसे-जैसे मुझे अधिक दुःख देंगे वैसे-वैसे वे अधिकाधिक मेरे वश में होते जायेंगे और पल मात्र भी मुझसे अलग नहीं रहेंगे ।' ऐसा समझकर भगवान ज्यों-ज्यों ज्यादा कसते जायें त्यों-त्यों स्वयं को अत्यन्त प्रसन्न रखना चाहिए परन्तु किसी भी तरह दुःख देखकर अथवा शारीरिक सुख के लिए पीछे की ओर पैर नहीं उठाना चाहिए ।''        

इति वचनामृतम् ।। ६१ ।।