संवत् १८६ की फाल्गुन चतुर्थी को श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में चौक के बीच पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, जिस पर सफेद पुष्पों के तुर्रे लगे हुए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
तत् पश्चात स्वयं प्रकाशानंद स्वामी ने पूछा कि - ''श्रीमद् भागवत'' में कहा गया है कि -
''सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः संतोष आर्जवम् ।
शमो दमस्तपः साम्यं तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ।।
ज्ञानं विरक्तिरैश्चर्य शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्यं कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ।।
प्रागल्भ्यं प्रश्य शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्यं स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानो।नहंकृतिः ।।''
ये तो उन्तालीस कल्याणकारी गुण भगवान के स्वरुप में निरन्तर रहते हैं, वे संत में किस प्रकार आते हैं ?'' तब श्रीजी महाराज बोले - ''संत में इन गुणों के उदय होने का कारण यह है कि भगवान के स्वरुप का यथार्थ निश्चय हो जाने पर भगवान के ये कल्याणकारी गुण संत में उदित हो जाते हैं । वह निश्चय कैसा होना चाहिए । जो पुरुष भगवान को काल, कर्म, स्वभाव, माया तथा पुरुष जैसा न समझकर उन्हें सबसे भिन्न उन सबका नियन्ता और कर्ता समझता है तथा सबका कर्ता होने पर भी उन्हें निर्लेप मानता है और जिसने प्रत्यक्ष भगवान के स्वरुप का निश्चय कर लिया है, जो विभिन्न शास्त्रों का श्रवण करने, किसी भी मतवादी की बात सुनने और अपने अंतःकरण द्वारा किसी भी प्रकार कुतर्क किये जाने पर भी नहीं हटता, उसे ही इस तरह का निश्चय होने पर भगवान से सम्बद्ध हुआ कहा जाता है । इसलिए, जिसके साथ जिसका संबंध स्थापित हो जाता है उसमें वैसे ही गुण सहज रुप से उत्पन्न हो जाते हैं तब उसका प्रकाश उनमें छा जाता है, किन्तु जब उससे आँखों के आगे अंधेरा रहता है तब उसका नाश हो जाता है, वैसे ही भगवान के स्वरुप का दृढ निश्चय होने के फलस्वरुप जब उनसे संबंध स्थापित हो जाता है तब उनमें भगवान के कल्याणकारी गुणों का उदय हो जाता है । जिस प्रकार भगवान समस्त प्रकार से निर्बन्ध हैं और जो कुछ चाहें, उसे करने में समर्थ हैं, उसी तरह वह भक्त भी अतिशय समर्थ और निर्बन्ध करता है ।'' तब निर्विकारानंद स्वामी ने पूछा - ''निश्चय होने पर भी जब अच्छे गुण तो आते नहीं और मान एवं ईर्ष्या की भावना दिन प्रतिदिन बढती ही जाती है, उसका क्या कारण होगा ?'' तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''यदि भगवान के समक्ष अमृत, विषैली औषधियाँ, खीर, शक्कर तथा अफीम को थाल में अर्पित किया जाय तो भी जिसका जैसा गुण होगा वह वैसा का वैसा ही रहेगा, किन्तु उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होगा, उसी प्रकार जो जीव आसुरी और अति कुपात्र होते हैं वे भगवान के पास आने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोडते । ऐसा जीव किसी गरीब हरिभक्त से द्वेष करता है तब उसका अशुभ फल प्राप्त होता है, क्योंकि भगवान समस्त जीवों में अंतर्यामी रुप से रहे हैं । जहाँ उनकी इच्छा हो वहाँ वे उतनी सामर्थ्य दिखलाते हैं । इस कारण, भक्त के अपमान से भगवान का निरादर होता है, जिससे उस अपमान कर्ता का अत्यन्त अहित हो जाता है । जैसे - हिरण्यकश्यपु ऐसा बलवान था कि उसने त्रिलोक को अपने वश में कर रखा था, परन्तु जब उसने प्रहलादजी से द्वेष किया तब भगवान ने स्तंभ में से नृसिंह रुप में प्रकट होकर हिरण्यकश्यपु का नाश कर दिया । ऐसा विचार करके भगवान के भक्त को अत्यन्त नम्र होकर किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि भगवान तो ऐसे भक्त के अंतःकरण में भी विराजमान रहे हैं और वे ऐसे भक्त का अपमान करनेवाले पुरुष का अनिष्ट कर डालते हैं । ऐसा समझकर किसी साधारण जीव को भी दुखी नहीं करना चाहिए । यदि अहंकार वश कोई पुरुष किसी जीव को कष्ट देता है तो गर्वहारी भगवान, जो अंतर्यामी रुप से सर्वव्यापी हैं, इसे सहन नहीं कर सकते हैं और बाद में वे चाहे जिसके द्वारा प्रकट होकर उस अभिमानी पुरुष के अभिमान का नाश कर डालते हैं । इसलिए, भगवान से डर कर रहना चाहिए, किसी भी साधु पुरुष को लेशमात्र भी अभिमान नहीं रखना चाहिए और चींटी जैसे जीव को भी दुखी नहीं करना चाहिए, यही निर्मानी साधु का धर्म है ।''
इति वचनामृतम् ।। ६२ ।।