संवत् १८६ की फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और श्वेत पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे । पाग में गुलाब के पुष्पों के तुर्रे लगे हुए थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
तत् पश्चात नृसिंहानंद स्वामी ने पूछा - 'भगवान संबंधी निश्चय में जिसकी किसी भी प्रकार की त्रुटी रहती है तो उसके कैसे संकल्प होते हैं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसके निश्चय में कोई कसर रह जाती है उसे भगवान में जब कुछ सामर्थ्य नहीं दिख पडती तब अंतःकरण निस्तेज हो जाता है । यदि उसके हृदय में अनुचित संकल्प होते तो और वे टालने पर भी नहीं टलते हों तब भगवान को ही दोषी ठहराने लगता है कि मैं इतने दिनों से सत्संग करके मर गया तो भी भगवान मेरे बुरे संकल्पों को टालते नहीं है । इस प्रकार वह भगवान पर दोष मढता है और जिन पदार्थों में उसका लगाव रहता है, उनसे मन के किसी भी तरह से पीछे न हटने पर वैसा का वैसा दोष भगवान पर भी लगाता है कि मुझमें जैसे कामादिक दोष हैं वैसे ही वे भगवान में भी हैं, परन्तु भगवान तो महान कहलाते हैं । जिसके अंतःकरण में इस प्रकार के संकल्प होते हों, उसके निश्चय में कसर रह गयी है, ऐसा समझना चाहिए और यह मानना चाहिए कि उसका निश्चय परिपक्व नहीं है ।
इसके पश्चात परम चैतन्यानंद स्वामी ने पूछा - 'हे महाराज ! जिसे भगवान का परिपक्व निश्चय होता है, उसके संकल्प किस प्रकार के होते हैं ? तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसका निश्चय परिपक्व होता है, उसके मन में तो ऐसी भावना नहीं रहती है कि मुझे सब कुछ प्राप्त हो चुका है और जहाँ प्रत्यक्ष भगवान रहे हैं, वही परमधाम है तथा ये सभी संत नारदसनकादिक जैसे हैं और समस्त सत्संगी उद्धव, अक्रूर, विदुर, सुदामा और वृंदावन के ग्वालों के सदृश हैं तथा जो हरिभक्त स्त्रियाँ हैं, वे तो गोपियां, द्रौपदी, कुंती, सीता रुकमणी, लक्ष्मी और पार्वती जैसी हैं । अब मेरे लिए कोई भी कर्म करने के लिए नहीं रह गया है और मैं गोलोक, बैकुंठ ब्रह्मपुर को प्राप्त हो चुका हूँ । जिसके ऐसे संकल्प होते हों और हृदय में अति आनंद समाया रहता हो, उसके निश्चय को परिपक्व समझना चाहिए । ऐसा कहकर श्रीजी महाराज इस प्रकार बोले - भगवान के स्वरुप को तत्त्वतः जान लेने के पश्चात उसे समझने के लिए कुछ नहीं रह जाता । उस तत्त्व द्वारा भगवान के स्वरुप को समझने की रीति बताते हैं, उसे सुनिए । उसे सुनकर परमेश्वर के स्वरुप का अडिग निश्चय हो जाता है, सर्वप्रथम तो उसे भगवान की महत्ता जाननी चाहिए । जैसे कोई बडा राजा हो और उसकी दास - दासियों तक के भी सात मंजिलवाली हवेलियाँ निवास करने के लिए हों और बाग-बगीचों, रथों और घोडों तथा स्वर्ण आभूषणों आदि सामग्रियों से युक्त उनके घर देवलोक - सदृश दिखायी पडते हों, तब भी उस राजा के राजभवन और उसमें विद्यमान सामग्रियाँ तो अत्यन्त शोभायमान प्रतीत होंगी । वैसे ही, श्री पुरुषोत्तम भगवान की आज्ञा का पालन करनेवाले ब्रह्मांड के अधिपति ब्रह्मादिक के लोकों तथा उनके वैभव का तो पार भी नहीं पाया जा सकता, तो उन विराटपुरुष के जिनके नाभि कमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, वैभव का पार कैसे पाया जा सकता है ? ऐसे अनंतकोटि विराटपुरुषों के स्वामी पुरुषोत्तम भगवान के अक्षरधाम में इस प्रकार के अनंतकोटि ब्रह्मांड अणु के समान एक-एक रोम में उडते - फिरते हैं । उन भगवान का ऐसा धाम है, जिसमें स्वयं पुरुषोत्तम भगवान दिव्य रुप में सदा विराजमान रहते हैं । उस धाम में अपार दिव्य सामग्रियाँ हैं, तब उन भगवान का ऐसा धाम है, जिसमें स्वयं पुरुषोत्तम भगवान दिव्य रुप में सदा विराजमान रहते हैं । उस धाम में अपार दिव्य सामग्रियाँ हैं, तब उन भगवानकी महत्ता का पार कैसे पाया जा सकता है ? इस प्रकार भगवान की महत्ता को समझना चाहिए । और, जो जिससे बडा होता है, वह उससे सूक्ष्म होता है और वह ुसका कारण भी होता है । जिस प्रकार पृथ्वी से जल बडा है और उसका कारण भी है और उससे सूक्ष्म भी है तथा जल से तेज बडा है और तेज से वायु बडा है तथा वायु से आकाश बडा है, वैसे ही अहंकार, महत्तत्त्व, प्रधानपुरुष, प्रकृतिपुरुष तथा अक्षर, ये सभी एक-दूसरे से बडे हैं । एक - दूसरे से सूक्ष्म और कारण हैं तथा ये सभी मूर्तिमान हैं । परन्तु भगवान का अक्षरधाम तो बहुत बडा है और उनके एक-एक रोम में अनंत कोटि ब्रह्मांड अणु के समान उडती ही फिरते हैं । जैसे किसी बडे हाथी के शरीर पर चींटी चली जाती हो तो भी उसका कोई महत्त्व नहीं रहता, वैसे ही उस अक्षर की महत्ता के आगे अन्य किसी को कोई भी महत्त्व नहीं प्राप्त होता, जैसे मच्छरों के बीच चीटियाँ बडी दिखायी पडती हैं, चीटियों के बीच बिच्छू बडा दिखता है और बिच्छुओं के मध्य सर्प बडा दिखायी पडता है, सर्प के बीच चील बडी दिखती है और चील के बीच भैंसे बडे दिखायी पडते हैं, भैंसों के बीच हाथी और हाथियों के बीच गिरनार जैसा पर्वत और गिरनार के मध्य मेरु पर्वत बडा दिखाई पडता है, उस मेरु पर्वत के बीच लोकालोक पर्वत और उससे पृथ्वी बहुत बडी दिखायी पडती है । पृथ्वी का कारण जो जल है वह उससे बडा और सूक्ष्म भी है । इसी प्रकार जल का कारण तेज, उसका कारण वायु, उसका कारण आकाश, उसका कारण अहंकार, उसका कारण महत्तत्त्व, उसका कारण प्रधान एवं पुरुष, उनका कारण मूल प्रकृति तथा ब्रह्म है ।
इन सबका कारण अक्षर ब्रह्म है तथा अक्षर तो पुरुषोत्तम भगवान का धाम है । उस अक्षर की संकुचन एवं विकास की स्थिति नहीं रहती और उसका एक ही रुप सदैव बना रहता है । वह अक्षर मूर्तिमान है, परन्तु बहुत बडा है, इस कारण अक्षर का रुप किसी को भी दृष्टिगोचर नहीं होता, जैसे चौबीस तत्वों का कार्य ब्रह्मांड पुरुषावतार कहलाता है और वे विराट पुरुष कर चरणादि से युक्त हैं, परन्तु उनकी मूर्ति अतिशय विशाल है, इस कारण वह दिखायी नहीं पडती । उन विराट पुरुष की नाभि से उत्पन्न कमल के नाल में ब्रह्मा एक सौ वर्ष तक चले, परन्तु उसका अंत नहीं हुआ । जब कलम का अंत नहीं हुआ तब विराट पुरुष का पार कैसे पाया जा सकता है ? इसलिए, उस विराट का रुप दिखायी नहीं पडता वैसे ही अक्षरधाम भी मूर्तिमान है परन्तु वह किसी को नहीं दिख पडता, क्योंकि ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्मांड एक-एक रोम में उडते ही फिरते हैं । इतने बडे हैं वे ! उस अक्षरधाम में पुरुषोत्तम भगवान स्वयं सदैव विराजमान रहते हैं तथा अपनी अंतर्यामी शक्ति द्वारा अक्षरधाम, अनंतकोटि ब्रह्मांडो तथा उनके ईश्वरों में अन्वयभाव से रहे हैं और उस अक्षरधाम में अपने साधर्म्यभाव को प्राप्त अनंतकोटि मुक्त इन भगवान की सेवा में रहते हैं । उन भगवान के सेवकों के एक - एक रोम में कोटि-कोटि सूर्यों के समान प्रकाश रहता है । अतएव, जिनके सेवक ऐसे हैं तो उनके स्वामी पुरुषोत्तम भगवान स्वयं अक्षर में प्रवेश करके अक्षर रुप हो जाते हैं । बाद में प्रधान पुरुष रुप होते हैं । उसके बाद वे प्रधान में से उत्पन्न चौबीस तत्त्वों में प्रवेश करके उनका स्वरुप ग्रहण कर लेते हैं । इसके बाद वे उन तत्त्वों द्वारा उत्पन्न विराट पुरुष में प्रवेश करके उनका स्वरुप धारण करते हैं । तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव में प्रवेश करके उनका रुप ग्रहण करते हैं ।
इस प्रकार अतिसमर्थ, अति प्रकाशयुक्त तथा अत्यन्त महान ये भगवान अपने ऐसे ऐश्वर्य और तेज को स्वयं में समाविष्ट करके जीव के कल्याण के लिए मनुष्याकार हो जाते हैं और तब ऐसा रुप धारण करते हैं ताकि मनुष्य उनके दर्शन, सेवा-अर्चना आदि करने में समर्थ हो सके । जैसे चींटी के पैर में बारीक कांटा लग गया हो और उसे यदि बरछी और नहनी द्वारा निकाला जाय तो नहीं निकलेगा, किन्तु बहुत बारीक लोहे के उपकरण से निकल जाएगा, वैसे ही भगवान भी अपनी महत्ता को स्वयं में छिपाकर अतिशय अल्प रुप धारण करते हैं । जिस प्रकार अग्नि अपने प्रकाश तथा ज्वाला को छिपाकर मनुष्य सदृश हो जाती है, उसी तरह भगवान भी अपनी सामर्थ्य को छिपाकर जीव के कल्याण के लिए मनुष्योचित व्यवहार करते हैं । जो मूर्ख होता है वह तो यही समझता है कि भगवान कुछ भी सामर्थ्य प्रकट क्यों नहीं करते ? परन्तु, भगवान तो केवल जीव के कल्याण के लिए अपनी सामर्थ्य को छिपाकर व्यवहार करते हैं । यदि भगवान अपनी महत्ता को प्रकट करें तो ब्रह्मांड भी दिखायी नहीं पड सकता, तब जीव की क्या गणना ? जिसके हृदय में ऐसी महिमा सहित भगवान का निश्चय सुदृढ हो गया हो, उसे काल, कर्म, माया आदि किसी भी प्रकार का बंधन करने में समर्थ नहीं हो सकते । इसलिए, जो जीव इस प्रकार तत्त्वतः भगवान को समझ जाता है, उसे कुछ भी करने के लिए शेष नहीं रह जाता ।'
इसके पश्चात नित्यानंद स्वामी ने पूछा - 'क्या भगवान ऐसे अनुक्रम द्वारा या अनुक्रम के बिना ही मनुष्याकृति धारण करते हैं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'अनुक्रम का कोई मेल नहीं है । इस प्रसंग में यह दृष्टान्त है कि जैसे कोई पुरुष तालाब में डुबकी मारकर चाहे तो वहीं या किनारे पर अथवा आसपास निकल सकता है, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान अक्षर रुप धाम में डुबकी लगाकर चाहें तो वहीं से सीधे मनुष्याकृति ग्रहण कर लेते हैं या स्वेच्छानुसार इस प्रकार के अनुक्रम द्वारा मनुष्याकार हो जाते हैं ।'
इस प्रकार वार्ता करने के बाद श्रीजी महाराज पुनः बोले - 'जिसे अत्यन्त दृढ निश्चय हो जाता है, उसका संक्षेप में लक्षण बताता हूँ । उसे सुनिए जिसे परिपक्व निश्चय हो गया हो और जो स्वयं अत्यन्त त्यागी हो तो भी उससे चाहे जितनी प्रवृत्ति - मार्ग की क्रिया करायी जाय वह उसे करता है, किन्तु उससे पीछे नहीं हटता और खीझकर नहीं, बल्कि प्रसन्नतापूर्वक यह कार्य करता है तथा अन्य लक्षण यह है कि अपना चाहे जैसा स्वभाव हो और वह कोटि उपाय करने पर भी टल जाय, ऐसा न हो तथा यदि वह उस स्वभाव को छोड देने के लिए परमेश्वर का आग्रह देखे तो उस स्वभाव का तत्काल परित्याग कर डालता है। तीसरा लक्षण यह है कि कोई जीव ऐसा होता है कि स्वयं में कोई अवगुण होने पर भी परमेश्वर के कथा - कीर्तन तथा भगवान के संत के बिना घडी भर भी नहीं रह पाता और अपना अवगुण समझकर संत का अधिक से अधिक गुण ग्रहण करता है तथा भगवान की कथा, कीर्तन और उनके संत की महिमा को अधिकाधिक समझता है । जिसका ऐसा आचरण रहता हो, उसका निश्चय परिपक्व समझना चाहिए । ऐसे निश्चयवाला यदि प्रारब्ध वश कभी अपने आचरण से च्युत हो जाता है तो भी उसका अकल्याण नहीं होता । यदि ऐसा निश्चय न रहे तो चाहे कैसा भी त्यागी हो तो भी उसका कल्याण नहीं होता ।
इति वचनामृतम् ।। ६३ ।।