वचनामृतम् ६४

संवत् १८६ की फाल्गुन कृष्ण नवमी को स्वामी श्री सहजानंदजी        महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सफेद दुपट्टा धारण किया था, काले पल्ले का दुपट्टा ओढा था, मस्तक पर रेशमी किनारीवाली धोती बांधी थी तथा तुलसी की नयी कंठी कंठ में पहनी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधुओं तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने मुनियों से प्रश्न किया - 'पुरुषोत्तम भगवान का शरीर आत्मा तथा अक्षर हैं, श्रुतियों ने ऐसा बताया है । आत्मा और अक्षर तो विकार रहित हैं तथा अत्यन्त शुद्ध हैं । जिस प्रकार भगवान माया से परे हैं वैसे ही आत्मा और अक्षर भी माया से परे हैं, तब ऐसी आत्मा तथा अक्षर को किस प्रकार भगवान का शरीर कहा जाता है ? जीव का शरीर तो जीव से अत्यन्त विलक्षण तथा विकारपूर्ण है । देही जीव तो निर्विकार है, इसलिए देह और देही में तो अत्यन्त विलक्षणता है, वैसे ही पुरुषोत्तम और उनका शरीर जो आत्मा और अक्षर हैं, उनमें भी अत्यन्त विलक्षणता होनी चाहिए, तो बतलाइए कि वह कैसी विलक्षणता है ?' तब समस्त मुनियों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इसका उत्तर दिया, किन्तु उनमें से कोई भी मुनि यथार्थ उत्तर न दे सका । तब श्रीजी महाराज बोले - 'लीजिए हम उत्तर देते हैं । आत्मा और अक्षर को पुरुषोत्तम भगवान का शरीर स्वरुपी बताया गया है, किन्तु वह व्याप्त भाव, अधीनता तथा असमर्थता के कारण है और वह इस प्रकार है कि भगवान अपनी अंतर्यामी शक्ति द्वारा आत्मा और अक्षर में व्यापक हैं तथा वे दोनों व्याप्त हैं । भगवान स्वतंत्र है तथा आत्मा व अक्षर तो भगवान के अधीन और परतंत्र हैं । भगवान अति समर्थ हैं तथा आत्मा व अक्षर तो भगवान के समक्ष अत्यन्त असमर्थ हैं । इस प्रकार भगवान इन दोनों के शरीरी हैं और ये दोनों भगवान के शरीर हैं । ऐसे शरीरी पुरुषोत्तम भगवान सदैव दिव्य मूर्तिमान रहते हैं । ऐसे भगवान व्यापक हैं और वे समस्त दृष्टा आत्माओं तथा उनमें व्याप्त और दृश्य देह, इन सबमें अपनी अंतर्यामी शक्ति द्वारा आत्मारुप में रहे हैं । इस प्रकार सबके आत्मास्वरुपी पुरुषोत्तम भगवान को जब शास्त्रों में रुपवान दृश्य आत्मा के रुप में बताया गया हो तब यह मानना चाहिए कि पुरुषोत्तम को दृश्य रुप में प्रतिपादित किया गया है और जब उनका दृष्टा के आत्मा रुप में प्रतिपादन किया गया हो तब इन पुरुषोत्तम को अरुपभाव से शास्त्रों में बताया जाता है । फिर भी, पुरुषोत्तम भगवान रुपवान, दृश्य और अरुपी आत्मा से भिन्न हैं तथा सदैव मूर्तिमान रहते हैं, फिर भी प्राकृत आकार से रहित हैं तथा मूर्तिमान होने पर भी द्रष्टा एवं दृश्य, दोनों के दृष्टा हैं और आत्मा एवं अक्षर, सबके प्रेरक हैं । वे स्वतंत्र तथा नियन्ता होने के साथ - साथ समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न हैं और अक्षर से भी परे हैं । ऐसे पुरुषोत्तम भगवान जीवों के कल्याण के लिए कृपा करके पृथ्वी पर मनुष्य जैसे दिखायी पडते हैं । जो मनुष्य उन्हें इस प्रकार सर्वदा दिव्य मूर्तिमान  समझकर उनकी उपासना और भक्ति करते हैं, वे तो इन भगवान के साधर्म्यभाव और अनंत ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं तथा ब्रह्मभाव को प्राप्त अपनी आत्मा द्वारा प्रेम सहित निरन्तर परम आदर भावना के साथ पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में दत्तचित रहते हैं । किन्तु जो जीव इन भगवान को निराकार समझकर ध्यान - उपासना करते हैं, वे तो ब्रह्म सुषुप्ति में विलीन हो जाते हैं और फिर वे वहाँ से कभी भी नहीं निकल पाते तथा भगवान से कोई ऐश्वर्य भी प्राप्त नहीं करते । हमने यह वार्ता प्रत्यक्ष देखकर ही कही है । इसलिए, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए । इस वार्ता के मर्म तो केवल वही पुरुष समझ सकता है, जो इन भगवान के स्वरुप में सदैव दिव्य साकार रुप में ही उपासना करने की अपनी दृढ निष्ठा पर अटल बना हुआ है । परन्तु अन्य कोई भी मनुष्य इसे समझने में समर्थ नहीं हो पाता । इसलिए, इस वार्ता में अत्यन्त दृढता रखनी चाहिए ।'
                                        
इति वचनामृतम् ।। ६४ ।।