संवत् १८६ की फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने शयन करने के कमरे के बरामदे में गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे । वे सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उस समय उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंसो तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज कथा करवा रहे थे । उस समय उन्होंने बडे-बडे परमहंसों को अपने समीप बुलवाया । इसके पश्चात कथा का अध्याय पूर्ण होने पर श्रीजी महाराज बोले कि - ''जितने बडे-बडे साधुजन हों उन्हें परस्पर प्रश्नोतर करना चाहिए, क्योंकि प्रश्नोत्तर से जिसकी जैसी बुद्धि होती है उसका पता चल जाता है ।'' इसके बाद स्वयं प्रकाशानंद स्वामी ने परमानंद स्वामी से प्रश्न किया - ''आकाश की उत्पत्ति तथा लय किस प्रकार होती है ?'' तब परमानंद स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे किन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके । इसके बाद श्रीजी महाराज बोले कि - ''जब बालक सर्वप्रथम माता के उदर में रहता है तब तथा जन्म के समय उसकी हृदयादिक इन्द्रियों के छिद्र सूक्ष्म होते हैं, बाद में जैसे-जैसे वह बालक बढता जाता है वैसे वैसे उन छिद्रों की वृद्धि भी होती रहती है और उनमें आकाश भी उत्पन्न होता दिखायी पडता है तथा जब वह वृद्धावस्था को प्राप्त होता है तब उसकी इन्द्रियों के छिद्र संकुचित होते जाते हैं और आकाश भी लय को प्राप्त दिख पडता है, वैसे ही जब विराट देह उत्पन्न होती है तब उसके अवान्तर हृदयादिक छिद्रों में आकाश की उत्पत्ति होती दिखायी पडती है और जब इस विराट देह का लय हो जाता है तब आकाश भी विलीन होता दिखायी पडता है । इस प्रकार आकाश की उत्पत्ति और लय का क्रम चलता रहता है परन्तु जो आकाश सबका आधार है, वह तो प्रकृति पुरुष के समान नित्य रहता है, इसलिए उनकी उत्पत्ति तथा लय हो ही नहीं सकता । समाधि द्वारा आकाश की जो उत्पत्ति तथा लय होता है, उसकी रीति को तो समाधिवाले ही जानते हैं ।'' तब परमानंद स्वामी ने स्वयं प्रकाशानंद स्वामी से प्रश्न किया - ''सुषुम्ना नाडी देह के भीतर और बाहर कैसे रही है ?'' तब इस प्रश्न का उत्तर स्वयं प्रकाशानंद स्वामी देने लगे किन्तु यथार्थ उत्तर देने में समर्थ न हो सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''इस ब्रह्मांड में जितने तत्त्व हैं उतने ही इस पिंड में भी हैं । वे पिंड में अल्प हैं और ब्रह्मांड में बडे हैं । जैसा आकार इस पिंड का है वैसा ही आकार ब्रह्मांड का भी है । जिस प्रकार ब्रह्मांड में नदियाँ हैं वैसे ही पिंड में नाडियाँ हैं । इसी प्रकार जैसे ब्रह्मांड में समुद्र है वैसे ही पिंड में स्थित कुक्षि में जल रहता है और वहाँ जिस तरह चन्द्र तथा सूर्य रहते हैं उसी प्रकार पिंड की इडापिंगला नाडियों में चन्द्र-सूर्य हैं । इस प्रकार जो तत्त्व ब्रह्मांड में हैं वे पिंड में भी हैं तथा इस पिंड में इन्द्रियों की जो नाडिया हैं उनकी ब्रह्मांड के साथ एकात्मता रहती है और भक्त जब जिह्वा पर नियन्त्रण कर लेता है तब वह वरुण देव पर काबू पा लेता है । उसी प्रकार वाक-इन्द्रिय को नियन्त्रित कर लेने पर अग्निदेव पर नियन्त्रण हो जाता है । वैसे ही त्वचा इन्द्रिय पर काबू होने से वायु देव पर नियन्त्रण होता है । इसी तरह जब वह शिश्न (जननेन्द्रिय) पर काबू पा लेता है तब प्रजापति के साथ तादात्म्य हो जाता है और हाथ पर नियन्त्रण होने पर इन्द्र पर काबू हो जाता है । उसी प्रकार हृदय में रहनेवाली सुषुन्मा नाडी के अंतिम भाग में, जिसे ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं, स्थित शिशुमार चक्र में रहनेवाले वैश्वानर नामक अग्नि अभिमानी देवता पर नियन्त्रण हो जाता है तब ब्रह्मरन्ध्र से लेकर प्रकृति पुरुष तक तेज का एक सीधा मार्ग रहता है । उस तेज के मार्ग को सुषुम्ना कहते हैं । इस प्रकार सुषुम्ना नाडी पिंड और ब्रह्मांड में रहती है ।''
पुनः परमानंद स्वामी ने स्वयंप्रकाशानंद स्वामी से यह प्रश्न किया - ''सर्व प्रथम जाग्रत अवस्था का लय होता है या स्वप्न या सुषुप्ति का लय हो जाता ही ?'' तब इस प्रश्न का उत्तर स्वयं प्रकाशानंद स्वामी न दे सके । तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''जाग्रत अवस्था में जब अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान की मूर्ति में समाधि लग जाती है तब सबसे पहले जाग्रत अवस्था का लय होता है, उसके पश्चात स्वप्न एवं सुषुप्ति का लय हुआ करता है । जब मानसिक रुप से चिन्तन करते-करते स्वप्न में भगवान की मूर्ति की ओर ध्यान लग जाय तब सर्वप्रथम स्वप्नावस्था का लय होता है और उसके बाद जाग्रत तथा सुषुप्ति अवस्थाएँ विलीन हो जाती हैं । जब भगवान की मूर्ति का चिंतन करते-करते उपशम भावना से लक्ष्य होता है तब सबसे पहले सुषुप्ति और उसके बाद जाग्रत तथा स्वप्नावस्था का लय होता है ।'' इस प्रकार श्रीजी महाराज ने इस प्रश्न का उत्तर दिया ।
इसके पश्चात स्वयं प्रकाशानंद स्वामी ने परमानंद स्वामी से प्रश्न किया ''यह बात किस तरह समझनी चाहिए कि भगवान के संबंध में ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा इच्छा शक्ति बनी हुई है ?'' तब श्रीजी महाराज हँसकर बोले कि ''इसका उत्तर तो आपको भी नहीं आता होगा ।'' ऐसा कहकर वे स्वयं उत्तर देने लगे कि - 'जब यह जीव सात्विक भाव से आचरण करते हुए जो कर्म करता है, उसका फल जाग्रत अवस्था के रुप में मिलता है । जब यह जीव राजसिक भाव से आचरण के साथ कर्मरत रहता है तब उसका फल स्वप्नावस्था का द्योतक बन जाता है । जब जीव द्वारा तामसिक भाव से आचरण किये जाते समय जो कर्म किया जाता है, उसका फल सुषुप्ति अवस्था का सूचक होता है । जब यह जीव सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त होता है तब वह शिला के समान जड हो जाता है और उस स्थिति में उसे किसी भी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता कि ''मैं पंडित या मूर्ख हूँ, यह कार्य किया है या वह काम करना है या यह मेरी जाति है या ऐसा मेरा वर्ण है, या ऐसा मेरा आश्रम है या यह मेरा नाम है या यह मेरा रुप है या मैं देव हूँ या मनुष्य, बालक या वृद्ध, धर्मिष्ठ हँू या पापात्मा हूँ,' इत्यादि किसी भी प्रकार का ज्ञान रहता नहीं है । जब जीव इस प्रकार का हो जाता है तब भगवान उसे ज्ञानशक्ति द्वारा सुषुप्ति अवस्था से जगाकर उसके करने योग्य समस्त क्रियाओं का ज्ञान प्रदान करते हैं । उसे ज्ञानशक्ति कहते हैं । जब यह जीव जिस-जिस क्रिया में प्रवृत्त रहता है, तो उसे भगवान की क्रियाशक्ति का अवलंबन करने से ही ऐसी सामर्थ्य प्राप्त होती है । उसे क्रियाशक्ति कहा जाता है । यह जीव जिस किसी पदार्थ को पाने की इच्छा करता है, वह परमेश्वर की इच्छा शक्ति का अवलंबन करने से प्राप्त हो जाता है । उसे इच्छा शक्ति कहते हैं । इस जीव को जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जो भोगने पडते हैं उन्हें वह केवल कर्म द्वारा ही नहीं भोगता, बल्कि कर्म फल देनेवाले परमेश्वर की इच्छा से भोगता है, क्योंकि यह जीव जाग्रत अवस्था के फल का उपभोग करते समय जब स्वप्नावस्था में जाने की इच्छा करता है तब वह स्वेच्छा से वहाँ नहीं जा सकता, क्योंकि कर्मफल देनेवाले परमेश्वर उसकी वृत्तियों को अवरुद्ध रखते हैं । इसी प्रकार जीव केवल अपनी इच्छा द्वारा स्वप्नावस्था से जाग्रत अवस्था या सुषुप्ति अवस्था और सुषुप्ति अवस्था से स्वप्नावस्था से जाग्रत अवस्था में नहीं जा पाता । कर्मफल का उपभोग करानेवाले तो परमेश्वर ही हैं, वे जब जिस अवस्था के कर्मफल का भोग भोगने का अवसर प्रदान करते हैं तभी उसका उपभोग किया जा सकता है । परन्तु यह जीव स्वयं अपनी इच्छा अथवा क्रिया द्वारा कर्मफल का उपभोग नहीं कर सकता । इस प्रकार भगवान में ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा इच्छाशक्ति रही है । इस प्रकार श्रीजी महाराज ने कृपा करके उत्तर दिया ।'
इति वचनामृतम् ।। ६५ ।।