संवत १८६ की फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने काले पल्ले का दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''श्रीमद् भागवत में चतुर्व्यूह - वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध की ही वार्ता है । उसे किसी स्थान पर सगुण और किसी स्थल पर निर्गुण रुप में बताया गया है । यस समझ लेना चाहिए कि जहाँ भगवान के निर्गुण स्वरुप का वर्णन किया गया है, वह भगवान वासुदेव के संबंध में है और जहाँ-जहाँ सगुणात्मक वर्णन है वहाँ-वहाँ संकर्षण, अनिरुद्ध और प्रद्युम्न को संबोधित करके कहा गया है । इसलिए शास्त्रों में भगवान के निर्गुण स्वरुप का जो वर्णन है उसके पढने और सुननेवालों की मति भ्रमित हो जाती है, क्योंकि वे ऐसा समझते हैं कि 'भगवान का आकार होता ही नहीं है' यानी वे निराकार हैं । ऐसी धारणा रखनेवालों की बुद्धि विपरीत दिशा में भटकती फिरती है तथा शास्त्रों में प्रतिपादित शाब्दिक अभिव्यक्ति को एकान्तिक भक्त के सिवा अन्य कोई भी जीव नहीं समझ पाता । इन शब्दों को सुनकर कि 'भगवान अरुप, ज्योतिस्वरुप, निर्गुण और सर्वत्र व्यापक हैं, 'वह समझता है कि 'शास्त्रों में तो भगवान को निराकार ही बताया गया है,' जबकि एकान्तिक भक्त की तो यह मान्यता रहती है कि 'शास्त्रों में भगवान का जो निराकार एवं निर्गुण स्वरुप प्रतिपादित किया गया है, उसे तो मायिक रुप-गुण के निषेध के लिए बताया गया है कि भगवान तो नित्य दिव्य मूर्तिमान हैं तथा अनंत कल्याणकारी गुणों से युक्त हैं' तथा उन्हें तेज पुंज रुपी बताया गया है, अतएव ऐसा तेज मूर्ति के बिना हो ही नहीं सकता, इस दृष्टि से यह मूर्ति का ही तेज है । जैसे अग्नि की जो मूर्ति है, उसमें से अग्नि की ज्वाला प्रकट होती है, इस कारण अग्नि की यह मूर्ति नहीं दिख पडती, किन्तु ज्वाला दिखायी पडती है, उसे विवेकी पुरुष यह समझता है कि अग्नि की मूर्ति में से ही ज्वाला निकलती है । वैसे ही वरुण की मूर्ति में से जल प्रकट होता है, वही जल दिखायी पडता है, किन्तु वरुण की मूर्ति नहीं दिखायी पडती । फिर भी, बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा समझता है कि जिस तरह वरुण की मूर्ति में से समस्त जल निकलता है उसी प्रकार ब्रह्म सत्ता रुप कोटि सूर्यों का जो प्रकाश है वह पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति का ही प्रकाश है । शास्त्रों में ऐसे वचन वचन भी हैं कि 'जिस प्रकार कांटे से कांटा निकालकर इन दोनों का परित्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिए देह-धारण करते हैं और भार उतारने के पश्चात देह-त्याग कर डालते हैं ।' ऐसे शब्दों को सुनकर मूर्ख तो उद्भ्रान्त हो जाता है तथा भगवान को निराकार समझता है, परन्तु वह भगवान की मूर्ति को दिव्य नहीं मानता । किन्तु एकान्तिक भक्त तो यह समझता है कि जब श्रीकृष्ण भगवान अर्जुन की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के निमित्त ब्राह्मण के पुत्र को लेने के लिए गए तब उन्होंने अर्जुन के साथ द्वारिका से रथ पर बैठकर प्रस्थान किया और लोकालोक पर्वत को लांघकर मार्ग में पडनेवाले माया के अंधकार को सुदर्शन चक्र द्वारा दूर कर दिया और वहाँ से रथ को आगे बढाकर तेजपुंज में प्रवेश किया तथा वे भूमा पुरुष से ब्राह्मण के पुत्र को ले आये थे । श्रीकृष्ण भगवान दिव्य मूर्तिमान थे, इसलिए उनके प्रताप से लकडी के रथ और पांच भौतिक देहवाले घोडों को दिव्य एवं मायातीत चैतन्य रुप प्राप्त हो गया । यदि उन्हें दिव्य स्वरुप प्राप्त न हुआ होता तो जितना माया का कार्य होता है उतना माया में ही लीन हो जाता तथा माया से परे ब्रह्मधाम तक पहुँच नहीं सकती थी । भगवान की मूर्ति के प्रताप से मायिक पदार्थ भी अमायिक बन गये । भगवान के ऐसे स्वरुप को मूर्ख पुरुष मायिक समझता है, जबकि एकान्तिक संत भगवान की मूर्ति को अक्षरातीत तथा मूर्तिमान पुरुषोत्तम भगवान को ब्रह्मरुप, अनंतकोटि मुक्तों तथा अक्षरधाम की आत्मा मानता है ।
इसलिए, चाहे किसी भी प्रकार के शास्त्रों का पठन-पाठन करते समय यदि भगवान के निर्गुण रुप का प्रतिपादन किया गया हो तो भी उस स्थान पर ऐसा समझना चाहिए कि इन भगवान की मूर्ति की महिमा बतायी गयी है, परन्तु भगवान तो सदा मूर्तिमान ही हैं । इस प्रकार समझनेवाले को एकान्तिक भक्त कहते हैं ।''
इति वचनामृतम् ।। ६६ ।।