संवत् १८६ की चैत्र शुक्ल सप्तमी को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में मुनियों के निवास स्थान में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज ने मुनियों से प्रश्न किया ''कई सत्पुरुष हैं, जिन्हें इस लोक के सुख का तो मोह ही नहीं है, किन्तु परलोक, जो भगवान का धाम है तथा भगवान की मूर्ति में वासना बनी हुई है और जो कोई जीव उनका संग करता है, उससे भी वे इसी प्रकार स्नेह करते हैं कि 'यह मेरा साथी है इसलिए यदि इसकी सांसारिक वासना हट जाय और भगवान से प्रीति हो जाय तो बहुत अच्छा होगा ।' ऐसे पुरुष जो कुछ भी यत्न करते हैं, वे सब उनके देह त्याग के पश्चात भगवान के धाम में पहुँच जाने के उपरान्त सुखदायी होते हैं परन्तु वे अपने दैहिक सुख के लिए कोई भी क्रिया करते ही नहीं है । ऐसे सत्पुरुष जैसे गुण मुमुक्षु में किस प्रकार समझ में आ सकते हैं और किस तरह उनकी जानकारी नहीं हो सकती ?'' फिर मुक्तानंद स्वामी ने कहा - ''जिन्हें इस लोक के सुखों से लगाव नहीं रहता वे ही सत्पुरुष होते हैं और उनमें देवबुद्धि बनी रहती है तथा यह कि जो कहे हुए वचनों को सत्य मानकर तदनुसार आचरण करते हैं, सत्पुरुष के वे ही गुण मुमुक्षु में आते हैं और यदि ऐसा न हो तो उसमें उनका समावेश नहीं हो सकता ।''
इसके पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''यह उत्तर तो ठीक है, परन्तु इस प्रकार समझा जाय तो महान सत्पुरुष के गुण मुमुक्षु में आ जाते हैं, जिन्हें समझने की रीति बताते हैं, उसे सुनिए ''जिन्हें परमेश्वर के सिवा अन्यत्र कहीं भी प्रीति नहीं होती, उनके गुणों को इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि 'ये पुरुष तो बहुत बडे हैं और इनके आगे सुखों की लेशमात्र भी इच्छा नहीं करते और मैं तो ऐसा घोर पामर जीव हूँ कि केवल सांसारिक सुखों में ही आसक्त हो गया हूँ और परमेश्वर की वार्ता को तो लेशमात्र भी नहीं समझता, इसलिए मुझे धिक्कार है ।' उसे इस प्रकार की आत्म-ग्लानि होती रहती है और तब वह महापुरुष के गुणों को ग्रहण करता है तथा अपने अवगुणों पर पश्चाताप करता है । इस प्रकार पश्चाताप करते - करते उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और इसके बाद उसमें सत्पुरुष जैसे गुण आ जाते हैं । जिसके हृदय में सत्पुरुष के गुण नहीं आते, उसके लक्षण अब कहते हैं, उन्हें सुनिए । जो पुरुष ऐसा समझता है कि 'ये महापुरुष कहलाते हैं, फिर भी इनमें किसी प्रकार का विवेक नहीं है । इन्हें न तो खाने-पीने का ढंग ही मालूम है और न ओढना तथा कपडे पहनना ही आता है । परमेश्वर ने इन्हें बहुत सुख दिया है, फिर भी उसका उपभोग करना नहीं आता और वे किसी को कोई वस्तु देते भी है तो उसे बिना विवेक ही दे डालते हैं ।' इस प्रकार ऐसे सतपुरुष में वह अनेक अवगुण ही देखता रहता है । ऐसे दुर्बुद्धिवाले पुरुष में कभी भी सतपुरुषों के गुण आते ही नहीं हैं ।'ं
इति वचनामृतम् ।। ६७ ।।