वचनामृतम् ६८

संवत् १८६ की चैत्र शुक्ल नवमी को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था, सफेद चादर ओढी थी और सिर पर श्वेत रेशमी किनारीवाली धोती बांधी थी । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''हम एक प्रश्न करते हैं ।'' तब मुनियों ने कहा कि पूछिए । तब श्रीजी महाराज बोले कि -- ''उनहत्तर के दुर्भिक्ष के समय हमें एक महीने तक जब नींद नहीं आती थी तब ऐसा आभास होता था कि हमने पुरुषोत्तमपुरी में जाकर श्री जगन्नाथजी की मूर्ति में प्रवेश करके निवास किया है । वह काष्ठ की मूर्ति थी, फिर भी हम उसके नेत्रों सें सबको देखते रहते थे, पुजारी के भक्तिभाव और छल कपट को भी देखते थे । अपने सत्संग में जो समाधिनिष्ठ पुरुष रहते हैं वे भी इस प्रकार समाधि द्वारा दूसरे के शरीर में प्रवेश करके सबको देखते हैं तथा समस्त शब्दों को सुनते हैं । शास्त्रों में भी ऐसे वचन हैं कि 'शुकदेवजी वृक्ष में रहकर बोले थे ।' इसलिए महान सत्पुरुष या परमेश्वर अपनी इचछा के अनुसार किसी भी स्थान में प्रवेश करने की सामर्थ्य रखते हैं । अतः परमेश्वर ने अपनी आज्ञा द्वारा जो मूर्ति पूजन करने के लिए दी हो वह आठ प्रकार की होती है तथा उसमें स्वयं भगवान साक्षात् प्रवेश करके विराजमान रहते हैं । भगवान का जो भक्त उस मूर्ति की पूजा करता हो तो उसे उस मूर्ति की मर्यादा का पालन वैसे ही करना चाहिए, 'जिस तरह प्रत्यक्ष रुप से विराजमान भगवान की मर्यादा का पालन किया जाता है ।' वैसे ही संत के हृदय में भी भगवान की मूर्ति रही है, इसलिए उन संत की भी मर्यादा रखी जानी चाहिए । किन्तु वह भक्त तो ऐसी मर्यादा का लेशमात्र भी पालन नहीं करता और उल्टे वह मूर्ति को चित्र का पाषाणादिक समझता है तथा संत को अन्य पुरुषों के समान मानता है । भगवान ने तो अपने श्रीमुख से ऐसा कहा है कि 'मैं अपनी आठ प्रकार की प्रतिमा तथा संत में अखंड रुप से निवास करता रहता हूँ' और यह भक्त तो भगवान की प्रतिमा तथा संत के समक्ष स्वेच्छा से अविवेक पूर्ण आचरण करता रहता है । परन्तु भगवान से लेशमात्र भी भयभीत नहीं होता । उसे भगवान का निश्चय है या नहीं ?'' यह प्रश्न है । तब परमहंस बोले, ''जब यह भगवान को अंतर्यामी मानकर भी मर्यादा नहीं रखता तो यही प्रतीत होता है कि उसमें भगवान का निश्चय ही नहीं है ।''
         
इसके पश्चात श्रीजी महाराज बोले - ''उसे निश्चय तो है ही नहीं तथा बाह्य रुप से भी वह पाखंडपूर्ण भक्ति करता है तो उसका कल्याण होगा या  नहीं ?'' फिर संत बोले कि - ''उसका कल्याण नहीं होगा ।'' बाद में श्रीजी महाराज ने बताया - ''जिसे भगवान की मूर्ति तथा संत में नास्तिकता का भाव बना रहता है, उसकी ऐसी भावना उन प्रत्यक्ष भगवान में जिनका भजन-स्मरण वह करता रहता है, तथा भगवान के गोलोक एवं ब्रह्मपुर आदि धामों के संबंध में भी ज्यों की त्यों बनी रहती है और वह यह मानेगा कि जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय परमेश्वर द्वारा नहीं, किन्तु काल, माया और कर्म के द्वारा होते हैं, वह पक्का नास्तिक होगा ।''
         
तब मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - ''इस नास्तिकता का कारण पूर्व जन्म का कोई कर्म है या कुसंग ?'' तब श्रीजी महाराज बोले - ''नास्तिकता का कारण तो नास्तिक ग्रंथों का श्रवण करने से उत्पन्न होता है तथा ऐसे ग्रंथों की जानकारी रखनेवालों का संग भी नास्तिकता का निमित्त बन जाता है । काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मान तथा ईष्या का भाव भी नास्तिकता का कारण हो जाता है, क्योंकि इनमें से यदि किसी का भी प्रभाव उसके स्वभाव पर पडता है तो वह नारदसनकादिक जैसे साधुओं द्वारा समझाये जाने पर भी उसकी बात नहीं समझ पाता । यदि वह श्रीमद् भागवत जैसे आस्तिक ग्रंथों में प्रतिपादित जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय रुपी भगवान की लीला का श्रवण करेगा तथा भगवान और संत के माहात्म्य को समझ लेगा, तो उसकी नास्तिकता मिट जाएगी और आस्तिकता की भावना उत्पन्न हो जाएगी ।''
                                        
इति वचनामृतम् ।। ६८ ।।