संवत् १८६ के चैत्र की शुक्ल द्वादशी को स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्री वासुदेवनारायण की संध्या - आरती हो जाने के पश्चात नारायण धुन करने के बाद श्रीजी महाराज बोले कि - 'धर्म किसका नाम है, इसका शास्त्रोक्त रीति से उत्तर दीजिए । पहले के राजा, जो पशुओं का शिकार किया करते थे, शरण में आये हुए जीव की न तो स्वयं ही हत्या करते थे और न किसी अन्य पुरुष को ही उसकी हत्या करने की अनुमति देते थे । इसलिए, शरणागत जीव को मारने से जो पाप होता है वह क्या पर-पुरुष की हत्या करने से भी होता है या नहीं, ?' तब इसका उत्तर जिसे जैसा आया, वैसा उत्तर उसने दिया । परन्तु श्रीजी महाराज ने जब आशंका प्रकट की तब कोई भी साधु उत्तर देने में समर्थ न हो सका । समस्त मुनि बोले कि - हे महाराज हम भी आपसे यह प्रश्न करते हैं कि एक ओर तो यज्ञादि में पशु बध को एक धार्मिक क्रिया के रुप में प्रतिपादित किया गया है और दूसरी ओर धर्म का अहिंसात्मक रुप भी बताया गया है, इसलिए कृपया बतलाइए कि इसमें यथार्थ क्या है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि हिंसायुक्त धार्मिक क्रिया तो धर्म, अर्थ एवं काम की अपेक्षा से हिंसा का जो प्रतिपादन किया गया है वह इसलिए कि अन्य क्षेत्रों में हिंसा से मुक्त रहा जाय । किन्तु, अहिंसामय धर्म को मोक्षप्रद बताया गया है । यह साधु का धर्म है । हिंसात्मक धर्म - विधि को कामना प्राप्त माना गया है और उससे कल्याण नहीं होता । इसलिए अहिंसामय धर्म तो केवल कल्याण के लिए किया जाता है । किन्तु, गृहस्थों और त्यागी जनों के लिए तो केवल अहिंसामय धर्म ही कल्याणकारी बताया गया है । इस प्रसंग में यह बात उल्लेखनीय है कि उपरिचर वसु नामक राजा अपने राज्य में केवल अहिंसात्मक धर्म का ही आचरण करते थे । इस कारण साधुओं तो मन, कर्म एवं वचन द्वारा किसी का भी अहित नहीं करना चाहिए । उन्हें तो किसी बात का अहंकार भी नहीं करना चाहिए और सबका दासानुदास होकर रहना चाहिए । क्योंकि क्रोधयुक्त प्रकृति तो दुष्ट पुरुष का धर्म होता है और शान्त स्वभाव से आचरण करना ही साधुओं का धर्म है । तब कोई यह कहेगा कि जब हजारों मनुष्यों से नियमों का पालन कराना हो तो साधुता ग्रहण करने से कैसे काम चलेगा ? इसका उत्तर तो यह है कि राजा युधिष्ठिर का तो हजारों कोसों में राज्य था तो भी उन्होंने साधुता रखी थी । भीमसेन के समान डराने- धमकानेवाले तो हजारों पुरुष हो सकते हैं, जिन्हें रोका जाय तो भी वे अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करने से नहीं रुक सकते । इसलिए, यह करना पडेगा कि वास्तव में तीक्ष्ण स्वभाववालों की कोई भी कमी नहीं है । ऐसे पुरुष तो भारी संख्या में पाये जाते हैं, परन्तु साधु बनना अत्यन्त दुर्लभ हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। ६९ ।।