संवत् १८६ के चैत्र मास की शुक्ल पूर्णिमा को श्रीजी महाराज श्री गढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के समरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सिर पर रेश्मी किनारीवाली श्वेत धोती बांधी थी, सफेद दुपट्टा धारण किया था तथा श्वेत चादर ओढी थी और वे अपने हस्त कमल में तुलसी की माला लेकर फेर रहे थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंसों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - बडे-बडे परमहंसों को अब परस्पर प्रश्नोत्तर करना चाहिए । यदि किसी हरिभक्त को कुछ पूछना हो तो वह परमहंसो से पूछे । तब रोजका ग्राम के हरिभक्त काका भाई ने नित्यानंद स्वामी से प्रश्न किया - अंतःकरण के भीतर कोई यह कहता है कि विषयों का उपभोग किया जाना चाहिए, जबकि दूसरा कोई ऐसा करने से अस्वीकार कर देता है। जो अस्वीकार करता है वह कौन है और जो स्वीकृति देता है वह कौन है ?' तब नित्यानंदस्वामी ने कहा - 'जो अस्वीकार करता है वह जीव है और जो स्वीकृति देता है वह मन है ? तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं । जिस दिन से समझदारी आयी और माता-पिता को पहचाना, उस दिन से माँ-बाप ने यह निश्चय कराया कि यह तेरी माँ, यह तेरा बाप, यह तेरा काका, यह तेरा भाई, यह तेरा मामा, यह तेरी बहन, यह तेरी भाभी, यह तेरी काकी, यह तेरी मौसी, यह तेरी भैंस, यह तेरी गाय, यह तेरा घोडा, यह तेरे कपडे, यह तेरा घर, यह तेरा मकान, यह तेरा खेत और ये तेरे गहने हैं इत्यादि, ये समस्त शब्द इस जीव की बुद्धि में रहते हैं । ये किस प्रकार रहते हैं, उसे कहते हैं । जैसे स्त्रियाँ जब कसीदे का काम करती हैं तब कसीदावाली चीज में शीशे का टुकडा लगाया जाता है, वैसे ही कसीदाकारी की जगह बुद्धि है और शीशे के टुकडे के स्थान पर यह जीव है, और उस बुद्धि में सांसारिक लोगों के वे शब्द तथा उनके रुप इन पंच विषयों के सहित रहे हैं । बाद में उस जीव को जब सत्संग प्राप्त हुआ तब संत ने परमेश्वर की महिमा तथा विषयों के खंडन और जगत के मिथ्या होने की वार्ता कही । उन संत की यह वार्ता तथा उसका रुप भी इस जीव की बुद्धि में रहा है । इन शब्दों के रुप में दोनों सेनाएँ हैं और आमने-सामने उसी तरह खडी हुई है, जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में कौरवों तथा पांडवों की सेनाएँ एक - दूसरे के सामने खडी हुई थी और उनके बीच युद्ध में तीरों, बरछियों, बंदूकों और तोपों आदि शस्त्रों का उपयोग किया गया । उस समय कुछ योद्धा तलवारें और कतिपय वीर पुरुष गदाएँ लेकर, तो कुछ सैनिक आमने-सामने लड रहे थे । उस स्थिति में किसी का सिर उड गया था और किसी की जांघ कट गयी थी, ऐसा रक्तपात हुआ था । उसी प्रकार इस जीव के अंतःकरण में भी सांसारिक लोगों के जो रुप हैं वे पंच विषय रुपी शस्त्रों को लेकर खडे है तथा इन संत के जो रुप हैं वे भी भगवान सत्य हैं, जगत मिथ्या है तथा विषय झूठे हैं इन शब्द रुपी शस्त्रों से सज्जित होकर खडे हैं और इन दोनों में शाब्दिक संघर्ष होता है । उस समय जब सांसारिक शब्दों का बल बढ जाता है तब विषयों का उपभोग करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है तथा जब संत का बल बढता है तब विषयोपभोग की इच्छा नहीं होती, इस प्रकार परस्पर अंतर्दृन्द्व चलता रहता है । जैसे -
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।
इस श्लोक में बताया गया है कि जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और धनुषधारी अर्जुन विद्यमान रहते हैं, वहीं लक्ष्मी रहती हैं, वहीं विजय मिलती है, वही ऐश्वर्य रहता है और वहीं अचल नीति बनी रहती है । अतः जिसकी तरफ संत मंडल है उसकी ही विजय होगी, ऐसा निश्चय रखना चाहिए ।'
तब पुनः काका भाई ने प्रश्न किया कि - 'है महाराज ! इस संत का बल बढनें तथा सांसारिक कुसंगी लोगों की शक्ति कम होने का क्या उपाय है?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'अंतःकरण में और बाहर जो कुसंगी हैं वे दोनों एकसमान हैं । इसी प्रकार हृदय और बाह्य क्षेत्र में रहनेवाले संत, दोनों ही एक सदृश हैं । परन्तु अंतः करण में रहनेवाले कुसंगी को जब बाहर के कुसंगी का पोषण प्राप्त होता है तब उनका बल बढ जाता है और अंतःकरण में निवास करनेवाले संत की शक्ति में भी बाह्य जगत के संत का प्रोत्साहन प्राप्त होने पर वृद्धि हो जाती है, इसलिए बाहर के कुसंगी लोगों का संग न करके बाह्य जगत में रहनेवाले संत का ही सत्संग करते रहना चाहिए । इस उपाय से कुसंगियों का बल घट जाता है और संत के बल में वृद्धि होती रहती है ।' इस प्रकार श्रीजी महाराज ने कहा ।
तब पुनः काकाभाई ने प्रश्न किया कि - 'हे महाराज ! एक पुरुष तो ऐसा है, जिसका कुसंगी के साथ संघर्ष समाप्त हो गया है और उसे संत का संबल प्राप्त है तथा एक अन्य पुरुष भी है, जिसका संघर्ष ज्यों का त्यों चलता रहता है । इन दोनों से जिसका संघर्ष समाप्त हो गया है उसके मरने पर उसे भगवान के धाम की प्राप्ति होती है, इस बात में तो कोई संदेह नहीं है, परन्तु जिसका संघर्ष पूर्ववत् चल रहा है, उसका देहान्त होने पर उसकी कैसी गति होती है, यह बताइये । तब श्रीजी महाराज बोले कि - एक योद्धा जब युद्ध करने के लिए निकला तब उसके सामने बनिया और गरीब लोग आये तो उन्हें जीत लिया गया और जब दूसरा योद्धा लडाई के लिए निकला तो उसके आगे अरबों की फौज आयी और राजपूत, काठी तथा कोली भी आये । उन्हें जीतना तो कठिन है क्योंकि वे बनियों की तरह नहीं हैं, जिन पर विजय पा ली जाय। अतः वे संघर्षरत रहते हैं । उनमें जिसकी जीत हो गयी वह जीत गया और जो योद्धा लडते-लडते शत्रु द्वारा खदेडे जाने पर भी नहीं हटे, परन्तु आयुष्य समाप्त होने के कारण अगर वे मर भी गये तो क्या उनका स्वामी यह बात नहीं जान सकेगा कि इनका मुकाबला करने के लिए बडे बलवान पुरुष आये जिन्हें जीता नहीं जा सकता था और जो बनिये आदि आये, उन्हें जीतना एक आसान काम था । इस प्रकार, उनकी सहायता भगवान भी करते हैं कि इन्हें ऐसे संकल्प - विकल्पों का संबल प्राप्त है तथा लडाई लडते हैं, इसलिए ये शाबाशी दिये जाने के पात्र हैं । यह समझकर ही भगवान उनकी सहायता करते हैं । अतः निश्चिन्त रहना चाहिए तथा किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । सन्त का अधिक से अधिक समागम करते रहना चाहिए । और कुसंगी से दूर ही रहना चाहिए ।' इस प्रकार श्रीजी महाराज प्रसन्न होकर बोल रहे थे ।
तब जसका गाँववाले जीवाभाई ने नित्यानंद स्वामी से प्रश्न किया - 'भगवान संबंधी अटल निश्चय किस प्रकार हो सकता है ?' तब नित्यानंद स्वामी बोले कि - 'कुसंग से अलग रहें और संत समागम अतिशय रेखें तो उस संत की बातों से भगवान का अटल निश्चय होता है । और यदि कुसंगी का संग करेंगे तो अटल निश्चय नहीं होगा ।' तब श्रीजी महाराज भी बोले कि - 'भगवान का निश्चय तो सिर्फ अपने जीव के कल्याण के लिए ही करना चाहिए, किसी पदार्थ की लालसा रखकर सत्संग नहीं करना चाहिए । मैं सत्संग करुँगा तो मेरी रूग्ण देह स्वस्थ हो जायेगी या पुत्रहीन हूँ तो मेरे घर पुत्र-जन्म होगा या फिर मेरे मृत पुत्र जी जायेंगे या मैं निर्धन से धनवान हो जाऊँगा । या गाँव-धन चला गया है तो लोट आयेगा, जो पुरुष ऐसी इच्छा रखकर सत्संग करता है वह पदार्थों की लालसा की पूर्ति होने पर बिल्कुल पक्का सत्संगी बन जाता है और इच्छा पूरी न होने पर निश्चय ही घट जाता है । इसलिए सत्संग अपने जीव के कल्याण के लिए ही करना चाहिए, किन्तु किसी प्रकार की इच्छा तो रखनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि अगर घर में दस मनुष्य हों तथा उनका मृत्युकाल उपस्थित होने पर यदि एक आदमी बच जाय तो क्या कम है या प्रारब्ध में यदि भिक्षा मांगने का योग हो और रोटियाँ खाने को मिलें तो क्या कम है ? जो सब कुछ जानेवाला था उसमें से इतना बच गया है, वह तो पर्याप्त है, ऐसा मानना चाहिए । यदि अत्यधिक दुःख उपस्थित होता हो और परमेश्वर का आश्रय ग्रहण किया जाय तो वह निश्चित रुप से थोडा कम हो जाता है, परन्तु इस जीव को यह बात समझ में नहीं आती । किसी को सूली चढने का योग हो तो ऐसी घटना मात्र कांटा लगने से भी टल जाती है, इतना अंतर तो भगवान के आश्रय से पड ही जाता हैै । इस प्रसंग में एक वार्ता स्मरणीय है कि एक गांव में बहुत चोर रहते थे, जिनमें से एक चोर साधु के पास बैठने के लिए आया करता था । एक बार मार्ग में चलते समय इस चोर के पैर में कांटा लग गया और वह उसके आरपार निकल गया। इस कारण उसका पैर सूज गया और इस हालत में यह चोर चोरी करने के लिए न जा सका, दूसरे चोर तो चोरी करने के लिए गये और वे एक राजा के खजाने में चोरी करके बहुत-सा धन ले आये और उन्होंने उसे आपस में बाँट लिया उधर, उस चोर के, जो साधु के पास आता था और जिसके पैर में कांटा लग गया था, माता-पिता, पत्नी और अन्य संबंधीजन यह सुनकर, कि दूसरे चोर तो बहुत-सा धन चुराकर लाये हैं, उसे डांटने लगे कि तू चोरी करने नहीं गया, किंतु साधु के पास गया, इस कारण हमारा भारी नुकसान हो गया और वे चोर तो चोरी करके बहुत ज्यादा धन लाये हैं । जब वे ऐसी बात कर ही रहे थे कि इतने में राजा के सैनिक वहां पहुँच गये और उन्होंने उन सब चोरों को पकडकर सूली पर चढा दिया । वे इन चोरों के साथ उक्त चोर को भी सूली पर चढाने के लिए ले गये । तब उस गांव के मनुष्यों और साधुओं ने गवाही देते हुए बताया कि यह तो चोरी करने नहीं गया, इसके पैर में तो कांटा लग गया था । इस तरह उस चोर की रक्षा हो गयी । जो पुरुष इस प्रकार सत्संग करते हैं उनका सूली जैसा दुख भी कांटे से मिट जाया करता है, क्योंकि हमने रामानंद स्वामी से यह निवेदन किया है कि आप के सत्संगियों को यदि एक बिच्छु का डंक लगने का कष्ट होनेवाला हो तो वह मेरे एक-एक रोम में करोडों बिच्छुओं के डंक लगने की पीडा हो जाय, किन्तु उन्हें ऐसा कष्ट नहीं होना चाहिए तथा आपके सत्संगियों के प्रारब्ध में यदि भिक्षा पात्र का योग हो तो वह मुझे मिल जाय, परन्तु वे अन्न वस्त्र के अभाव से दुखी न होने पावें । कृपया ये दो वरदान मुझे दीजिए । इस प्रकार ये दो वरदान मैंने रामानंद स्वामी से मांगे, जो उन्होंने मुझे प्रसन्नता पूर्वक दे दिया । इसलिए, जो पुरुष सत्संग किया करते है उन्हें व्यवहार में यदि कोई दुःख होनेवाला हो तो भी वह नहीं होने पाता । फिर भी, पदार्थ तो नाशवान ही है, इसलिए यदि पदार्थों की लालसा से कोई सत्संग किया जाएगा तो उस पुरुष के भगवान संबंधी निश्चय में संशय अवश्य उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए, सत्संग तो केवल निष्काम भाव से तथा अपने जीव के कल्याण के लिए करना चाहिए । तभी अडिग निश्चय रह सकता है । ऐसी वार्ता अधिकाधिक कही जा चुकी है । परन्तु यह तो मात्र दिशा दर्शन के लिए लिखी गयी है ।'
इति वचनामृतम् ।। ७० ।।