वचनामृतम् ७१

संवत् १८६ की चैत्र कृष्ण चतुर्थी के दिन सायंकाल के समय श्रीजी महाराज श्री गढपुर में दादाखाचर के दरबार में पश्चिम द्वार के कोठे के आगे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा पहना था, श्वेत चादर ओढी थी । सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था और अपने मुखारविन्द के आगे मुनिजन तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी और मुक्तानन्द स्वामी आदि साधुजन वाजिंत्र बजाकर कीर्तन गा रहे थे ।
         
ततपश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'अब कीर्तन भक्ति की समाप्ति करके परस्पर प्रश्न-उत्तर करिये ।' तब सोमला खाचर ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान अपने भक्त के समस्त अपराध माफ करते हैं । परन्तु ऐसा कौन-सा अपराध है, जिसे भगवान माफ नहीं करते ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'दूसरे सब अपराधों को भगवान माफ करते हैं, परन्तु जो भगवान के भक्त का द्रोह करते हैं, उसके अपराध भगवान माफ नहीं करते । इसलिए भगवान के भक्त का किसी प्रकार से भी द्रोह नहीं करना चाहिए । भगवान के सब अपराधों में से भगवान के आकार का खंडन करना बडा अपराध है ! इसलिए यह अपराध तो कभी नहीं करना चाहिए और ऐसा जो अपराध को करे उसे पंच महापापों से भी अधिक पाप लगता है । भगवान तो सदा साकार मूर्ति है । उन्हें निराकार समझना यही भगवान के आकार का खण्डन करना कहलाता है ।' और पुरुषोत्तम भगवान जो कोटि सूर्य चन्द्र सदृश तेजोमय ऐसे अपने अक्षरधाम में सदा दिव्याकार रुप में विराजमान हैं और ब्रह्मरुप ऐसे अनन्त कोटि मुक्तों ने उनके चरण कमल की सेवा की है, ऐसे हैं । परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान ही स्वयमेव कृपा करके जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं । उस समय जिन-जिन तत्वों को अंगीकार करते हैं वे सभी तत्व ब्रह्मरुप होते हैं । क्योंकि रामकृष्णादि अवतारों में स्थूल, सूक्ष्म और कारण ये तीन देहों तथा जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएँ दीखती हैं तथा दस इन्द्रियाँ, पांच प्राण इत्यादि सब तत्व मनुष्य के जैसे जान पडते हैं परन्तु यह सब ब्रह्म हैं, मायिक नहीं है । इसलिए भगवान के आकार का खण्डन नहीं करना चाहिए ।
         
मातरे धाधल ने प्रश्न पूछा कि - 'ईर्ष्या का क्या रुप है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिस पर जिसको ईर्ष्या होती है, उसकी भलाई उसे सहन नहीं होती है । परन्तु उसका अहित होने पर उसे प्रसन्नता होती है, यही ईर्ष्या का लक्षण है ।'
         
श्रीजी महाराज ने मुनियों से प्रश्न पूछा कि - 'भगवान की प्रत्यक्ष मूर्ति का निश्चय होने भजन करते रहने और सत्संग के नियमों के अनुसार जो वर्तन करता हो तब उसका कल्याण हो यह तो सत्संग की रीति है । परन्तु शास्त्र में कल्याण की कैसी रीति है ? और वेद के अर्थ तो अति कठिन हैं ? जिससे उनकी कथा नहीं होती, और श्रीमद् भागवत् पुराण तथा महाभारत इनमें वेद का ही अर्थ है और सुगम है अतः जगत में इनकी कथा होती है, इसलिए शास्त्र की रीति से कल्याण होता हो उसे कहिये । शंकराचार्य ने तो निराकार रुप से भगवान का प्रतिपादन किया है और रामानुजादिक जो आचार्य हैं उन्होंने तो              साकार रुप से भगवान का प्रतिपादन किया है । अतः ऐसी रीति से शास्त्र का मत लेकर उत्तर कहिए ।'
         
तब मुनिओं ने शास्त्र रीति से निराकार का पक्ष झूठा करके साकार भगवान के भजन द्वारा कल्याण है ऐसा प्रतिपादन किया ।
         
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'हम भी इसी पक्ष को ग्रहण करते हैं । परंतु, उनमें आपसे एक प्रश्न पूछते हैं कि - निराकार ऐसा जो अक्षर ब्रह्म उससे पर और सदा साकार ऐसे जो पुरुषोत्तम भगवान वे पृथ्वी पर प्रकट  मिले फिर भी ब्रह्मपुर तथा गोलोक बैकुंठ, श्वेतद्वीप में आदि जो भगवान के धाम हैं इन धामों को देखने की जिसमें लालच रहे, तब तो उसको निश्चय है या नहीं ?  तब मुनिजन बोले कि - 'भगवान मिलने के बाद जिसके मन में ऐसा रहता हो कि जब अक्षरादिक धाम देखेंगे अथवा कोटि-कोटि सूर्य का प्रकाश देखेंगे तब अपना कल्याण होगा' ऐसा समझनेवाले को तो यथार्थ में भगवान का निश्चय नहीं है ।'
         
ततपश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'उसने ब्रह्मपुरादि धामों को तथा ब्रह्मस्वरुप को देखने की लालच रख्खी हो तो यह कौन सा उसने पाप कर दिया जिससे उसके निश्चय की ना कहते हैं ।' तब मुनिजन बोले कि - 'जिसने प्रत्यक्ष रुप से भगवान के दर्शन द्वारा कल्याण माना हो वह ब्रह्मपुर गोलोक आदि जो धाम हैं वे भी भगवान के ही हैं । इसलिए उनके प्रति भी अरुचि क्यों रख्खें? बल्कि भगवान बिना उन्हें इच्छे ही नहीं ।' बाद में श्रीजी महाराज बोले कि - 'वे धाम और उन धामों में स्थित जो पार्षद है वे तो चैतन्य मूर्तियाँ है और माया से परे हैं । तब फिर उसमें कौन-सा दूषण है, जिससे कि उनको चाहें नहीं और भगवान पृथ्वी पर प्रकट विराजते हों और वहाँ जो सेवक हों वे भी मर जावें ऐसे हों और घर हो वह भी गिर जाये ऐसे हो तो आप उन्हें कैसा समझते  हो ?' तब मुनि बोले कि - 'उन घरों को तो हम ब्रह्मपुरधाम समझते हैं, और उन सेवकों को तो ब्रह्मरुप समझते हैं ।' तत्पश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'ब्रह्मपुर और ब्रह्मपुर में रहे जो भगवान के पार्षद हैं वे तो अखंड हैं और अविनाशी हैं और मृत्युलोक के नाशवन्त ऐसे जो घर और पार्षद इन दोनों को बराबर क्यों कहते हैं ?' तब नित्यानन्द स्वामी बोले कि - 'हे महाराज ! इसका उत्तर तो आप कहिए ।' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान जीव के कल्याण के लिए जब मूर्ति धारण करते हैं, तब अपना जो अक्षरधाम और चैतन्यमूर्ति ऐसे जो पार्षद हैं और अपने जो सब ऐश्वर्य हैं इनके सहित ही वे पधारते हैं । परन्तु वह दूसरों को देखने में नहीं आते और जब किसी भक्त को समाधि में अलौकिक दृष्टि होती है तब उसे भगवान की मूर्ति में कोटि-कोटि सूर्य का प्रकाश दिखता है और अनन्तकोटि मुक्त भी मूर्ति के साथ ही दिखते हैं और अक्षरधाम को भी उस मूर्ति के साथ देखता है इसलिए ये सब भगवान के साथ ही हैं । जो मनुष्य भगवान के भक्त होते हैं उनकी ही सेवा को अंगीकार करते हैं और वे अपने भक्त के गारा-मिट्टी और पत्थरों के बने जो घर हैं उनमें विराजमान रहते हैं । भक्त जो धूप, दीप तथा अन्न वस्त्रादि जो-जो अर्पण करता है उन्हें भगवान प्रीतिपूर्वक अंगीकार करते हैं । यह जो मनुष्य सेवक है उसे, दिव्य रुप पार्षदों में मिलाने के लिए करते हैं और जो भक्तजन जो-जो वस्तु भगवान को अर्पण करते हैं वह-वह वस्तु भगवान के धाम में दिव्यरुप बनकर उसे प्राप्त करता है । अतः ऐसा अचल अखंड सुख भक्तजन को देने के लिए भगवान स्वयं मनुष्य जो अपने भक्तजन की सब सेवा को अंगीकार करते हैं, इसलिए भगवान के भक्त के लिए भगवान का स्वरुप अक्षरधाम सहित इस पृथ्वी पर विराजमान है । ऐसा समझना चाहिए और दूसरों के आगे भी इसी प्रकार की वार्ता करनी चाहिए ।

इति वचनामृतम् ।। ७१ ।।