संवत् १८६ की चैत्र कृष्ण एकादशी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेवनारायण के मन्दिर के समीप उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर पूर्व की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किए थे और उनके मुखार विन्द के समक्ष मुनिजनों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! कल आपने दादाखाचर के सामने अति उत्तम वार्ता कही थी, उसे सुनने की हम सबकी बहुत इच्छा है ।'
श्रीजी महाराज बोले - 'जो भगवद्भक्त भगवान का माहत्म्य सहित निश्चय रखता हो, सन्त तथा सत्संगी का माहात्म्य बहुत अच्छी तरह जानता हो और उसका कर्म एवं काल भी कठिन हो तो भी उस भक्त को ऐसी भक्ति का अतिशय बल उपलब्ध रहता है जिससे काल और कर्म दोनों मिलकर भी उसका अहित नहीं कर सकते । जिसे भगवान तथा भगवान के सन्त की निष्ठा में न्यूनता दिखती है भगवान उसका कल्याण करना चाहे तब भी नहीं होता । जो व्यक्ति गरीबों को सताता है, उसका तो कभी भी कल्याण नही होता ।
महाभारत में भीष्म पितामह ने राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहा है कि - यदि तुम गरीबों को त्रस्त करोगे तो तुम अपने बंश सहित जलकर भस्म हो जाओगे' इसलिए भगवान के भक्त को अथवा अन्य पुरुष को किसी भी गरीब को लेश मात्र दुःखी नहीं करना चाहिए । यदि कोई गरीब को दुःखी करता है तो त्रास देने वाले व्यक्ति की कभी भलाई नहीं होती । यदि गरीब को दुःखी किया गया हो तो दुःख देने वाले व्यक्ति को ब्रह्महत्या का पाप लगता है । इसी प्रकार से किसी को असत्य रुप से कलंकित करने पर अपराधी को ब्रह्महत्या का पाप लग जाता है । यदि वास्तविक कलंक हो तो उस कलंकित व्यक्ति को एकांत में ले जाकर उसके हित की बात कहनी चाहिए । किन्तु उसे अपमानित नही करना चाहिए । पाँच प्रकार की जो स्त्रियाँ हैं उनका जो धर्म भंग करता है उसे भी ब्रह्महत्या का पाप लगता है । पाँच प्रकार की स्त्रियाँ कौन है ? प्रथम जो अपने शरण में रहती हो, दूसरी अपनी स्त्री हो और व्रत उपवास के दिन उसका संग न करना चाहती हो, तीसरी पतिव्रता स्त्री, चौथी विधवा स्त्री है, पांचवी विश्वासी स्त्री । इन पांच प्रकार की स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया तो व्यभिचार करनेवाले पुरुष पर ब्रह्महत्या का पाप लगता है । उनमें यदि किसी विधवा स्त्री का मन कुमार्गगामी हो जाय तो उसे समझाकर धर्म की तरफ प्रेरित करना चाहिए ।'
बाद में मुनिजन भगवान के श्रृंगारिक कीर्तन गाने लगे उसे सुनकर श्रीजी महाराज बोले कि 'भगवान जीवात्मा के कल्याण के लिए ही देह धारण करते हैं । तब उनकी मनुष्यों की तरह जो समस्त क्रियाएँ होती है उन्हें देखकर भगवद् भक्त तो उन्हें चरित्रप्रधान समझता है । किन्तु विमुख जीव अतवा अपरिपक्व भक्त हो तो इन चरित्रों में दोष ही देखता है । जिस प्रकार, शुकजी रासपंचाध्यायी का वर्णन करने लगे तब राजा परीक्षित को संशय हुआ । अतः उन्होंने यह पूछा कि 'भगवान तो धर्म की मर्यादा स्थापित करने के लिए प्रकट हुए थे तब उन्होंने पर नारी का संग करके धर्म का भंग क्यों किया ?' इस प्रकार उन्होंने दोष देखा। परन्तु शुकजीने तो समझ विचार करके भगवान का गुणगान किया कि कामदेव ने ब्रह्मादि देवताओं को जीतकर अपने वश में किया । इसलिए उसे अत्यन्त गर्व हो गया । उस गर्व को दूर करने के लिए भगवान ने कामदेव को ललकारा । जिस प्रकार कोई बलवान राजा शत्रु को अपनी तरफ से गोला बारुद और गोलियाँ दिलवाकर फिर उसके साथ लडने जाता है, उसी प्रकार भगवान ने कामदेव रुपी शत्रु को लडने का सामान पहले सी ही दिलवा दिया तो भी क्या ? जब स्त्री के साथ सम्बन्ध होता है तभी कामदेव का बल बढता है, विशेष रुप से शरदऋतु की रात्रियों में कामदेव के बल में अधिक वृद्धि हो जाया करती हैं, उस समय स्त्री के राग रंगमय विलास के शब्द सुनने, उसका रुप देखने और स्पर्श करने से कामदेव का बल अत्यधिक बढ जाता है । श्रीकृष्ण भगवान ने यह सब सामान कामदेव को देकर उस पर विजय प्राप्त कर ली और वे अखंड ब्रह्मचारी की तरह ऊर्ध्वरेता रहे । इस प्रकार भगवान ने कामदेव का गर्व उतारा। ऐसी अलौकिक सामर्थ्य भगवान के सिवा अन्य किसी में हो ही नहीं सकती। भगवान का ऐसा सामर्थ्य जानकर शुकजी ने उनका चरित्रगान किया । जबकि राजा परीक्षित को यह बात समझ में नहीं आयी और उन्होंने दोष देखा । अतः कोई यह कहता है कि 'आप परमहंस होकर रसिक कीर्तन क्यों गाते हैं ?' तो उसे कहना चाहिए कि यदि हम रसिक कीर्तन नहीं गायेंगे और भगवान की श्रृंगार लीलाओं के सम्बन्ध में दोष देखेंगे तो हम भी राजा परीक्षित तथा अन्य नास्तिक और विमुख जीवों की पंक्ति में मिल जायेंगे । इसलिए हमे तो विमुख की पंक्ति में सम्मिलित नहीं होना है, क्योंकि यदि समस्त परमहंसों के गुरु शुकजी ने स्वयं भगवान के रसिक चरित्रों का गुणगान किया है, तो हमें भी उनका गुणगान अवश्य करना चाहिए ।
जो क्षर अक्षर से रहित हैं ऐसे पुरुषोत्तम भगवान जब जीवों के कल्याण के लिए ब्रह्मांड में मनुष्याकार धारण करके विचरण करते हैं, तब वे मनुष्य के सदृश ही चरित्र करते हैं । जिस प्रकार मनुषयों में हारने, जीतने भय, शोक, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा, ईर्ष्या, आदि मार्मिक स्वभाव होता है वैसा ही स्वभाव भगवान भी स्वयं में दिखाते हैं । जो समस्त जीवों के कल्याण के लिए होता है । जो भक्त हैं वे तो इन चरित्रों का गान करके परमपद प्राप्त करते है और जो विमुख होते हैं वे दोष देखते हैं और भगवान तो क्षर की आत्मा है और प्रकृति पुरुष से परे रहनेवाले अक्षरब्रह्म की आत्मा हैं तथा क्षर-अक्षर इन दोनों को अपनी शक्ति द्वारा धारण किये हैं और स्वयं तो क्षर-अक्षर से न्यारे हैं । भगवान की महिमा तो ऐसी है कि 'जिनके एक एक रोम के छिद्र में अनन्त कोटि ब्रह्मांड परमाणु के समान विराजमान है । ऐसे महान भगवान जीवों के कल्याण के लिए मनुष्य जैसे हो जाते हैं । तब जीवों को सेवा करने का योग आता है । जो भगवान जैसे हैं वे यदि वैसे के वैसे ही बने रहे तो ब्रह्मांड के अधिपति ब्रह्मादिक देवों को भी जब भगवान के दर्शन और सेवा करने की सामर्थ्य रहे नहीं, तब मनुष्यों में ऐसी क्षमता किस प्रकार रह सकती है ? जैसे बडवानल अग्नि समुद्र में रहती है और वह उसके जल को पीती है तथा समुद्र द्वारा बुझाने पर भी वह नहीं बुझ पाती ऐसी विशाल है वह बडवानल । वही अग्नि जब अपने घर में दीपक की आवश्यक्ता हों और आकर अपने घर में बैठे तो अपने को दीपक जैसा सुख नहीं मिलेगा और सब जलकर भस्म हो जायेंगे । वही अग्नि जब दीपक का स्वरुप ग्रहण करती है, तब प्रकाश भी होता है और आनन्द भी आता है । यह दीपक की वही अगिन है जिसे फूंक मारकर या हाथ हिलाकर बुझाने से बुझ जाती है, यह असमर्थ है तब भी उसीसे अपने को सुख मिलता है । परन्तु बडवानल अगिन से सुख नहीं मिलता । इसी प्रकार भगवान मनुष्य के समान असमर्थ दिखायी पडने पर भी अनेक जीवों का कल्याण तो उन्हीं से होता है । जिनके एक एक रोम में अनन्त कोटि ब्रह्मांड रहे हैं ऐसी मूर्ति का दर्शन करने में जीव समर्थ नहीं हो पाता । इसलिए ऐसे रुप द्वारा कल्याण नहीं होता । अतः भगवान मनुष्याकार धारण करके जो-जो लीलाएँ दिखाते हैं उन सबका गान करना उचित है । परन्तु ऐसा नहग समझना चाहिए कि 'भगवान होकर भी वे ऐसा क्यों करते होंगे ?' भगवान की समस्त लीलाओं को तो कल्याणकारी ही समझना चाहिए। यही भक्त का धर्म है और जो ऐसा समझता है, वही भगवान का पूर्ण भक्त कहलाता है ।'
इसके बाद रोजका के हरिभक्त काकाभाई ने पूछा कि - 'जिसे माहात्म्य के बिना केवल भगवान का निश्चय हो जाता है उसके क्या लक्षण है ? और जिसे माहात्म्य सहित निश्चय होता है, उसके क्या लक्षण हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे केवल निश्चय हो पाया हो उसे तो ऐसा संकल्प होता रहता है कि 'भगवान तो मिले हैं परन्तु पता नहीं कल्याण होगा या नहीं ?' जिसे माहात्म्य सहित निश्चय हो गया हो वह तो यह समझने लगता है कि जिस दिन से भगवान का दर्शन हुआ है उस दिन से ही कल्याण हो रहा है । तथा जो जीव श्रद्धापूर्वक मेरे दर्शन करेंगे और मेरे वचनों का पालन करेंगे तो उनका भी कल्याण हो जायगा । तब मेरे कल्याण में शंका ही कहाँ है ? मैं तो कृतार्थ हूँ और जो कुछ साधन करता हूँ भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करता हूँ जो ऐसा समझने लगता है तो ऐसा मानना चाहिए कि उसे भगवान का माहात्म्य सहित निश्चय हो चुका है !'
काका भाई ने पूछा कि - उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ कहे जानेवाले भक्तों के क्या लक्षण हैं ? श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भक्त स्वयं को देह से अलग रहनेवाली आत्मा का रुप मानता है तथा देह के गुणों जड दुःख, मिथ्या और अपवित्रता आदि को आत्मा का गुण नहीं मानता है और आत्मा के अछेद्य, अभेद्य और अविनाशी आदि गुणों को देह में नहीं मानता, अपने शरीर में रहनेवाली जीवात्मा तथा आत्मा में रहे परमात्मा को देखता है और दूसरे देहों में रहनेवाली आत्मा को भी देखता है ऐसा समर्थ हो तो भी आत्मदर्शन से भगवान तथा भगवान के सन्तों को अधिक महत्वपूर्ण समझता है और स्वयं को आत्मदर्शन होने पर भी उसके सम्बन्ध में लेशमात्र अभिमान नहीं करता, ऐसा जिसका लक्षण है उसे उत्तम भक्त कहते हैं । जिसे भगवान में निश्चय और आत्मनिष्ठा भी हो परन्तु भगवान के भक्त पर ईर्ष्या रहती हो तथा भगवान द्वारा अपमान किये जाने पर उनके प्रति भी ईर्ष्या भाव आ जाय, कि वे बडे होकर भी बिना दोष के ऐसा व्यवहार क्यों करते होंगे, ऐसे लक्षणवाले को मध्यम भक्त समझना चाहिए, जिसे भगवान का निश्चय होने पर भी आत्मनिष्ठा न हो भगवान से प्रीति रहे, किन्तु इसके साथ-साथ सांसारिक व्यवहार से भी लगाव बना रहे तथा ऐसे जगत के व्यवहार में प्रीति हो और उसे सांसारिक व्यवहार में हर्ष शोक का अनुभव करता रहे, उसे कनिष्ठ भक्त समझना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।। ७२ ।।