संवत् १८६ की चैत्र कृष्ण अमावस्या की रात्रि के समय स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में अपने निवासस्थान में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था । सफेद चादर ओढी थी और श्वेत फेंटा मस्तक पर बांधा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुक्तानन्द स्वामी आदि बडे सन्त तथा लगभग पचास हरि भक्तों की सभा हो रही थी ।
गोपालानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'काम का क्या स्वरुप है ?' श्रीजी महाराज बोले कि - 'काम का स्वरुप वीर्य है । बाद में आशंका किये जाने पर की कि 'वीर्य तो सात धातुओं में से भीतर की एक धातु है ?' इसलिए इसे ही काम स्वरुप कैसे कहा जा सकता है, तथा उस वीर्य की उत्पति किसके द्वारा होती है ?' श्रीजी महाराज बोले कि - मनोवहा नामक नाडी में मन रहता है और उसमें जब स्त्री सम्बन्धी संकल्प होता है तब जैसे दही को मथानी द्वारा मथे जाने पर सारा घी ऊपर तैर आता है उसी प्रकार से स्त्री सम्बन्धी संकल्प से वीर्य शरीर में से मथकर और मनोवहा नाडी में एकत्र होकर शिश्न द्वारा उसी प्रकार आ जाता है । जिनका वीर्य शिश्न द्वारा नहीं आता उसे उर्ध्वरेता पुरुष तथा नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है । श्री कृष्ण भगवान ने रासक्रीडा के समय स्त्रियों का संग करने पर भी वीर्यपात नहीं होने दिया था । इसलिए उन्हें उर्ध्वरेता ब्रह्मचारी कहा गया और उन्होंने 'काम' को जीत लिया । अतः वीर्य ही काम का स्वरुप है, जिसने वीर्य को जीकर अपने वश में कर लिया है, वही काम पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है ।
गोपालानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जब इस देह को जला दिया जाता है तब सप्त धातुएँ भी देह के साथ जल जाती है । ऐसी स्थिति में वीर्य को काम का रुप माना जाय तो शरीर के साथ ही वीर्य के जलने पर काम को भी जल जाना चाहिए । तब इस जीव को अन्य देह में जाने पर काम का उदय क्यों होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'सूक्ष्म शरीर के साथ ही वीर्य रहता है और उसे सूक्ष्म शरीर के योग से स्थूल शरीर उत्पन्न होता है जैसे भूत सूक्ष्म शरीर प्रधान होता है, किन्तु जब वह सूक्ष्म देह में से स्थूल शरीर को धारण करके स्त्री का संग करता है तब उस स्त्री को भूत द्वारा बालक उत्पन्न होता है, अतः सूक्ष्म शरीर के साथ ही वीर्य रहता है ।'
गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि - ''शिवजी उर्ध्वरेता थे फिर भी मोहिनी रुप देखकर उनका वीर्यपात हो गया था । वैसे ही जिसके शरीर में वीर्य होता है उसे जागृत अथवा स्वप्नावस्था में स्त्री का योग होने पर वीर्यपात हुये बिना नहीं रह सकता । इसलिए जब तक देह में वीर्य रहेगा तब तक किसी को भी निष्कामी कैसे कहा जा सकता है ?'
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'शिवजी की भी योग कला में इतनी कमी कही जाती है । जिसे जाग्रत अथवा स्वप्न के योग से नारी विषयक संकल्पों के कारण वीर्यपात होता है तो उसे पक्का ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता। अतः इस संसार में तो द्रढ ब्रह्मचर्य वाले तो एक श्री नरनारायण ऋषि ही हैं तथा हमें उन्हीं का आश्रय हैं । उनके प्रताप से धीरे-धीरे नरनारायण का भजन करके हम लोग भी उनके समान निष्कामी हो जायेंगे । देह में जो वीर्य रहता है उसे जला डालने के लिये कितने योगी कितने ही प्रकार के प्रयत्न करते हैं। श्रीकृष्ण भगवानने तो स्त्रियों के संग रहकर भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्य रखा था । ऐसी सामर्थ्य तो भगवान में ही हो सकती है । परन्तु अन्य लोगों से तो इस प्रकार रहा नहीं जा सकता । अतः अन्य योगियों को जाग्रत अथवा स्वप्न में नारी विषयक का संकल्प न हो इस प्रकार से प्रयत्न करना चाहिये ।'
शुक्रमुनि ने पूछा कि - 'द्वारका में सोलह हजार एकसौ आठ स्त्रियाँ भगवान की थीं । उसमें से एक-एक स्त्री के दस-दस पुत्र और एक-एक पुत्री हुयीं ऐसा भी कहा गया है, तो उसे किस प्रकार समझना चाहिये ?' श्रीजी महाराज बोले कि - 'द्वारका की बात अलग है और ब्रज की बात अलग है । द्वारका में तो भगवान ने सांख्य मत का आश्रय लिया था । जो सांख्य मत वाले होते हैं वे अपने स्वरुप को देह, इन्द्रियों, मन इस सबसे भिन्न समझते हैं । और समस्त क्रियाओं को करते हुये भी स्वयं को अकर्ता मानते हैं तथा उसे उन क्रियाओं द्वारा हर्ष शोक भी प्राप्त नहीं होता है । भगवान ने इस मत को ग्रहण किया था इसलिये भगवान को र्निलिप्त कहा गया है, द्वारका में भगवान ने जिस सांख्य मत का आश्रय किया था वह तो जनक जैसे राजाओं का मत है । जो राजा गृहस्थाश्रम में रहकर प्रभु का भजन करते हैं वे सांख्यमतानुयायी होते हैं । उसी प्रकार भगवान भी गृहस्थाश्रम में रहे थे और द्वारका के राजा कहलाते थे । इसलिए सांख्य मतावलम्बी होने के कारण निर्लेप रहे थे । वृन्दावन में तो उन्होंने योग कला का आश्रय लिया था । इस कारण स्त्रियों का संग करके भी नैष्ठिक ब्रह्मचर्य रखा था । इस स्थान पर तो उन्होंने स्वयं में नरनारायण भाव दिखाया । श्रीमद् भागवत में कपिल देव ने देवहुति के प्रति कहा है कि - 'स्त्री रुप में जो मेरी माया है उसे जीतने में समर्थ नरनारायण ऋषि के बिना कोई समर्थ नहीं है ।' अतः श्री कृष्ण भगवान ने स्त्रियों के संग रहने पर भी काम को जीत लिया था । जब दुर्वासा ऋषि पधारे तो भगवान ने समस्त गोपियों द्वारा खाद्य सामग्री से भरा थाल ले जाने को कहा तब गोपियाँ बोली कि - 'हम यमुनाजी को कैसे पार कर सकेंगे' तब श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि यमुनाजी को कहना कि - 'यदि कृष्ण सदैव बाल ब्रह्मचारी हों तो हमें मार्ग दीजिए ।' गोपियों ने ऐसा कहा तो यमुनाजी ने मार्ग दिया । जब गोपियाँ ऋषि को भोजन करा चुकी तो वे बोली कि हमारे जाने के मार्ग में यमुनाजी है तो हम अपने घर कैसे जा पायेंगी ?' ऋषि ने पूछा कि वहाँ से कैसे आई थीं ? गोपियों ने कहा कि हम लोगों ने कहा था कि यदि 'कृष्णजी सदैव ब्रह्मचारी हों तो हमें मार्ग दे दीजिए !'' तब तो यमुनाजीने मार्ग दे दिया । परन्तु अब किस तरह घर जायें ? दुर्वासा ऋषि बोले कि इस बार 'यमुनाजी से कहना कि यदि दुर्वासा ऋषि सदैव उपवास करते रहे हों, तो हमें मार्ग दे दीजिए' जब गोपियों ने उनसे ऐसा कहा तो यमुनाजी ने मार्ग दे दिया ।' तब गोपियों को अतिशय आश्चर्य हुआ परन्तु वे भगवान तथा दुर्वासा ऋषि की महिमा को न जान सकीं । भगवान ने तो नैष्ठिक व्रत रखकर गोपियों के साथ रास किया था । अतः वे ब्रह्मचारी थे और दुर्वासा ऋषि तो विश्वात्मा श्रीकृष्ण भगवान में अपनी आत्मा का एकीकरण करके गोपियों के द्वारा दिए गए समस्त थालों के खाद्य पदार्थो को खा गए थे अतः वे भी उपवासी ही थे, क्योंकि समस्त अन्न तो भगवान को ही खिला दिये थे । अतः ऐसे महान पुरुषों की क्रियायें तो समझ में नहीं आती । यदि सांख्य मतावलम्बी खोजा जाय तो वे हजारों की संख्या में मिल जायेंगे । परन्तु भोग कलायुक्त उर्ध्वरेता यदि कोई हो तो वह एक नरनारायण ही है अथवा नरनारायण के अनन्य भक्त भी नरनारायण के भजन के प्रताप से दृढ ब्रह्मचर्य वाले हो जाते हैं । किन्तु दूसरे लोग ऐसे नहीं हो सकते । जिसे इन्द्रियों द्वारा जागृत अथवा स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाता है वह ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता । जो पुरुष सभी का अष्ट प्रकार से त्याग करता है वह तो ब्रह्मचर्य के मार्ग पर चलता रहता है, और नरनारायणदेव के प्रताप से धीरे-धीरे दृढ ब्रह्मचारी हो जाता है । जब हमारी शैशवावस्था थी तब हमने सुना था कि 'वीर्य तो पसीने के द्वारा भी निकल जाता है । तब हमने वीर्य को उर्ध्वगामी रखने के लिए दो प्रकार की जलबस्ति सीखी थी और कुंजर क्रिया सीखी थी । काम को जीतने के लिए कई प्रकार के आसन सीखे थे । रात्रि में सोते समय गोरख आसन करके सोते थे जिससे सोने के बाद उस क्रिया से स्वप्नावस्था में भी वीर्यपात नहीं हो पाता। काम को जीतने के लिए ऐसा उपाय भी किया कि जिससे शरीर से पसीना ही न निकले और ठंड तथा धूप भी न लगे । बाद में हम रामनन्द स्वामी के पास आये तब स्वामीने पसीना निकालने के लिए समस्त शरीर पर आवहा की पट्टियाँ लगवाई तब भी शरीर में पसीना नहीं आया । अतः काम को जीतने की साधना तो अत्यन्त कठिन है ।'
जिसे भगवान की उपासना का दृढ आश्रय होता है और जिन पंच विषयों में से किसी भी विषय की वासना बिलकुल नहीं रहती और निर्वासनिक रहने की भावना अतिशय दृढ हो चुकी हो वही, पुरुष भगवान के प्रताप से निर्वासनिक हो सकता है ।
नित्यानन्द स्वामीने पूछा कि - 'निर्वासनिक होने का कारण ऐसी बात सुनना भर है, या वह वैराग्य है ?' श्रीजी महाराज बोले कि - 'अकेला वैराग्य तो नहीं टिक सकता, अन्त में उसका नाश हो जाता है । जब आत्मनिष्ठा तथा भगवान की मूर्ति का यथार्थ ज्ञान हो जाय तब उसे यह विचार करना चाहिए मैं तो आत्मा तथा सच्चिदानन्द रुप हूँ और पिंड ब्रह्मांड तो मायिक एवं नाशवंत हैं । इसलिए मेरे साथ इस पिंड ब्रह्मांड की तुलना कैसे की जा सकती है ? मेरे इष्टदेव पुरुषोत्तम भगवान तो अनन्त कोटि ब्रह्मांडों के आधार अक्षर से परे हैं, तथा उन भगवान का मुझे दृढ आश्रय हो गया है । इस प्रकार के विचार में से जिसे वैराग्य का उदय होता है वह ज्ञानयुक्त कहलाता है और उस वैराग्य का किसी भी काल में नाश नहीं होता है । जैसे अग्नि जलती हो और उस पर यदि पानी झरे तो वह बुझ जाती है । किन्तु समुद्र में स्थित बडवानल पानी से बुझाये जाने पर भी नहीं बुझता। वैसे ही ज्ञानयुक्त वैराग्य बडवानल और बिजली की अग्नि जैसा होता है जो किसी भी समय नहीं जलता उसके बिना अन्य वैराग्य का विश्वास भी नहीं होता । हमारा वैराग्य तो बिजली की अग्नि तथा बडवानल के समान है । हमारे स्वभाव को तो जो मेरे अतिशय नजदीक होंगे वे ही जानते हैं और जो हमसे अलग अलग रहते हैं वे हमारे स्वभाव को नहीं जान सकते हैं । ये मुकुन्द ब्रह्मचारी अत्यन्त भोले हैं । फिर भी वे हमारे स्वभाव को अच्छी तरह से जानते हैं कि 'महाराज तो आकाश के समान निर्लिप्त है । उनका न तो कोई अपना है न पराया है ।' हमारे इस स्वभाव को जो ऐसा समझता है तो ईश्वर के गुणों के समान गुण ब्रह्मचारी मे हैं । अर्न्तयामी सब लोगों में विराजमान हैं । वे स्त्री-पुरुष के अन्तःकरण में इस प्रकार समझाते हैं कि ब्रह्मचारी में किसी भी प्रकार का दोष नहीं है । ऐसे सद्गुणों के रहने का कारण यह है कि सत्यपुरुष में जो निर्दोष बुद्धि रखता है वह समस्त दोषों से रहित हो जाता है । जो पुरुष महापुरुषों में दोष देखा करते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और कामादिक शत्रु उसके हृदय में आकर निवास करने लगते हैं । सत्पुरुषों में दोष दृष्टि रखनेवाले के हृदय में हंमेशा अशुभ संकल्प होते रहते हैं और वे उन्हें हमेशा त्रस्त करते रहते हैं । वे यदि सत्संग करते हैं तब भी उनका दुःख दूर नहीं होता । जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे तो हमारे समीप रहने के कारण हमारे समस्त स्वभाव को अच्छी तरह से जानते हैं कि संसार में जितनी मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुएँ धन, स्त्री, अलंकार आदि तथा खाद्य पदार्थ हैं, उनसे महाराज का कोई लगाव नहीं है । महाराज तो इन सबसे उदासीन रहते हैं । यदि वे किसी को दया करके अपने पास बैठने देते हैं, ज्ञान वार्ता करते हैं तो वह केवल जीव के कल्याण के लिए दया करके करते हैं । जो मूर्ख होते हैं वे तो हमारे पास रहने पर या दूर रहने पर भी हमारे स्वभाव को नहीं जान पाते ।'
यह बात भी उन्हीं भक्तों के समझ में आती है जो आत्मनिष्ठावाले होते हैं और आत्मा में परमेश्वर की मूर्ति को धारण करके भक्ति करते हैं और स्वयं ब्रह्मरुप हो गये हैं । तो भी भगवान की उपासना का त्याग नहीं करते । इस प्रकार आत्मनिष्ठा तथा भगवान की मूर्ति की महिमा को समझ लेने से किसी भी पदार्थ में वासना नहीं रहती, वासना टल जाने के बाद किसी को भी अपने प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःख भोगना पडता है । लेकिन इन्द्रियों की तीक्ष्णता मिट जाती है । मनोमय चक्र की जो धाराएँ हैं वे तो इन्द्रियाँ ही हैं, तथा वे ब्रह्म तथा उनसे परे परब्रह्म का साक्षात दर्शन होने के पश्चात ही कुंठित होती हैं। जैसे किसी पुरुष ने ढेर सारे नींबू चूसे हों और उसके दाँत खट्टे हो गये हों तो उसे यदि चना चबाना पडे तो किसी तरह से नहीं चबा सकता । अतिशय भूखा होने के कारण उन्हें निगलकर गले के नीचे भले ही उतार डाले परन्तु वे चबाये नहीं जा सकते । वैसे ही जिसने आत्मा तथा भगवान की यथार्थ महिमा जान ली हो उसे संसार के किसी भी विषय सुख में आनन्द नहीं आता । खानपानादिक सभी भोगों को वह जरुर भोगता है । उस समय वह सभी भोगों को वैसे ही भोगता है जैसे दांतों के खट्टे हो जाने के कारण चनों को निगल जाने के लिए बाध्य होना पडता है ।
वासना को मिटाने का कार्य भी अत्यन्त कठिन है । वास्तव में वासना तो समाधिनिष्ठ होने पर भी रह जाती है । समाधि लगने के बाद ब्रह्म के स्वरुप में से पुनः देह में किसी प्रकार भी नहीं आया जा सकता और अगर आते हैं तो उसके तीन कारण हैं । उनमें से प्रथम कारण यह है कि सांसारिक सुख की कोई वासना रह गयी हो तो उसे समाधि में से लौटकर पुनः देह में आना पडता है । दूसरा कारण यह है कि कोई अति समर्थ होने से समाधिस्थ हो जाता है और अपनी इच्छा से देह में आ जाता है । तीसरा कारण यह है कि कोई अपने से भी अतिसामर्थ्यवान रहने से उसे समाधि में से पुनः देह में ले आता है । इन तीन प्रकार के कारणों से समाधि से जीव देह में वापस आता है । जब किसी को समाधि होती है तो उसमें ब्रह्म का दर्शन होता है और कोटि-कोटि सूर्यो के समान ब्रह्म का प्रकाश देखने पर यदि वह अपनी अल्प बुद्धि के कारण प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति में किसी ब्रह्म में अधिक महत्त्व समझता है, तब उपासना भंग हो जाती है । अतः प्रत्यक्ष मूर्ति में अत्यन्त दृढ निश्चय होना चाहिए। तभी समस्त कार्य सम्पन्न हो जाते हैं । हमने भी ऐसा दृढ निश्चय किया है कि 'जो कोई हमें सच्चा होकर अपना मन अर्पित करता है और लेशमात्र भी भेदभाव नहीं रखता तो हम भी उसमें किसी बात की कमी नहीं रहने देते ।'
मुक्तानंद स्वामी ने पूछा कि - 'जिसने मन दिया हो उसके कैसे लक्षण होते हैं और मन न देनेवाले के कैसे लक्षण होते हैं ?' श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसने मन अर्पित किया हो वह तो परमेश्वर की चर्चा तथा उनके दर्शन होने के समय यदि स्वयं उपस्थित नहीं रहता तो उसे हार्दिक दुःख होता है, तथा भगवान की कथा सुनने और उसे उनके दर्शन से अधिकाधिक प्रीति होती रहती है । परन्तु उनमें से उनका मन पीछे नहीं हटता । जब परमेश्वर किसी को परदेश भेजने की आज्ञा करते हैं तब मन अर्पण करनेवाले के मन में होता है कि 'यदि वे मुझे आज्ञा दे तो बुरानपुर तथा काशी जहाँ कहें वहाँ मैं प्रसन्नतापूर्वक चला जाऊँगा ।' इस प्रकार परमेश्वर की इच्छा को मानकर जो पुरुष उसका पालन करता है वह तो हजार कोस जाने पर भी हमारे पास रहता है । जिसने इस प्रकार मन अर्पित नहीं किया हो, वह हमारे अत्यन्त निकट रहने पर भी लाखों कोस दूर रहता है । जिसने हमें मन अर्पित न किया हो उसे तो उपदेश करने में भी डर लगता है क्योंकि क्या पता वह सीधा समझेगा या उल्टा । मन अर्पित करनेवाले तथा मन न अर्पण करनेवाले पुरुष के यही लक्षण हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। ७३ ।।