संवत् १८६ की वैशाख शुक्ल एकादशी को प्रातःकाल स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर रखे हुए पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा सम्पन्न हो रही थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे जितना वैराग्य होता है तथा जिसकी जितनी समझ होती है, उसकी जानकारी किसी प्रकार के विषयभोग की प्राप्ति अथवा आपत्तिकाल के आने पर ही होती है । उसके बिना मालूम नहीं होती है, और अधिक सम्पत्ति या आपत्ति आ जाये तो उसकी तो बात ही क्या करनी है ? परन्तु इस दादाखाचर को जब थोडा-सा आपत्तकाल जैसा आया था उसमें भी जिसका अन्तःकरण जैसा रहा होगा, वैसा सबको विदित हुआ होगा ।'
मुक्तानंद स्वामी ने कहा कि - 'भगवान के भक्त का पक्ष तो हृदय में निश्चित रुप से और समझ-बूझकर रहता है । यदि सत्संग उत्कृष्ट हुआ तो अनेक जीवों के सत्संग की वृद्धि हो जाती है और यदि सत्संग का अपमान जैसा हो तो किसी भी जीव के सत्संग की वृद्धि नहीं हो सकती । इस कारण हर्ष शोक जैसा हो जाता है ।'
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - ''हम तो नरनारायण के सेवक हैं । इसलिये उनकी जैसी इच्छा हो उसमें ही प्रसन्न रहना चाहिये । यदि नरनारायण की इच्छा होगी तो सत्संग की वृद्धि होगी और यदि उन्हें उसे घटाना होगा तो वह घट भी जायगा । यदि ये नरनारायण हाथी पर बैठायें तो हमें उस पर बैठ कर प्रसन्न रहना चाहिये और यदि वे गधे पर बैठायें तो उस पर बैठ कर भी प्रसन्न रहना चाहिये । परन्तु नरनारायण के चरणारविन्द के सिवाय कहीं प्रीति नहीं रखनी चाहिये । ऐसे थूक से जोडे हुये सम्बन्ध से जिसका मन क्षुब्ध हो जाता है तो जब वास्तव में जगत का व्यवहार सिर पर पडे तो उसका क्या हाल होगा? अतः अपने पति जो नरनारायण बेर के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर रहे हैं और संसार के किसी भी सुख का स्पर्श नहीं करते ऐसे नरनारायण के हम दास हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री होती है वह आभूषण, वस्त्र, खानपान आदि समस्त भोग की वस्तुओं को अपने पति से कम ही रखती है, अधिक नही रखती । उसी तरह अपने पति नरनारायण से सांसारिक सुख को कम ही रखना चाहिये, यदि वह भक्त अपनी भक्ति द्वारा निष्कामी होकर इच्छा करता है तब तो ठीक है स्वयं के लिये इच्छा करने वाले भक्त को भगवान सम्बन्धी पदार्थ को भोगने की इच्छा नहीं रखनी चाहिये भगवान को तो सांसारिक सुख की इच्छा नहीं है। परन्तु अपने भक्त की भक्ति को जानकर उन्हें जो पदार्थ अर्पित करते हैं उन्हें वे स्वीकार लेते हैं । यदि भगवान को संसार के सुख की इच्छा हो तो अनन्त कोटि ब्रह्मांड के पति, ब्रह्मपुर, गोलोक और वैकुंठ आदि धाम के पति, और राधिका, लक्ष्मी आदि जो स्वयं की शक्तियों के पति ऐसे जो भगवान हैं वे अपने समस्त वैभव का त्याग करके बेर के वृक्ष के नीचे बैठकर तप क्यों करें ? अतः भगवान को तो विषय सम्बन्धी सुख की आसक्ति हो ही नहीं सकती । उसमें भी अन्य अवतारों से अपने पति नरनारायणदेव तो अत्यन्त त्यागी हैं, और जीव के कल्याण के लिये तप करते हैं । यदि उन नरनारायण को यदि किसी वैभव की आवश्यक्ता हो तो वे बेर खाकर क्यों बेठे रहें ?
इस संसार में जो मूर्ख जीव होते हैं वे भी घर - गाँव का भोग करते हैं, नरनारायण तो साक्षात भगवान हैं । यदि उन्हें कुछ चाहिये तो ज्यादा नहीं तो चार गाँव बसाकर बैठ सकते हैं । परन्तु उन भगवान को कुछ नहीं चाहिये। अतः अपने स्वामी जब ऐसे त्यागी हैं, तब तो अपने को उनसे विशेष त्यागी रहना चाहिये । उन भगवान की इच्छा से जैसे-जैसे सत्संग की वृद्धि होती जाय उसी तरह से खुश रहना चाहिये । भगवान की इच्छा हो तो समस्त जगत सत्संगी हो जायें अथवा उनकी इच्छा से समस्त सत्संगी मिट जायें । परन्तु किसी भी तरह से मन में हर्ष - शोक नहीं लाना चाहिये । क्योंकि यह सब भगवान द्वारा ही होता है । जैसे सूखा पत्ता वायु के आधार पर फिरता है वैसे ही भगवान के आधीन रहकर आनंदपूर्वक परमेश्वर का भजन करना चाहिये और किसी प्रकार मन में उद्वेग नहीं आने देना चाहिये ।' ।।
इति वचनामृतम् ।। ७४ ।।