संवत् १८६ की अषाढ शुक्ल तृतीया को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर में आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत दुपट्टा पहना था, सफेद चादर ओढी थी, मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी और कंठ में सफेद पुष्पों का हार पहना था । उनके मुखारविन्द के समक्ष भक्तों तथा देश-देशान्तर के मुनियों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'समस्त सन्तो, सुनिए । एक प्रश्न पूछते हैं ।' महाराज बोले कि - 'देश, काल, क्रिया, संग, मन्त्र, देवता का ध्यान, दीक्षा तथा शास्त्र ये आठ शुभ हों तो पुरुष की बुद्धि निर्मल होती है और यदि ये अशुभ हों तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट होती है । इसलिए इन आठों में पूर्व संस्कार के कर्मों की प्रबलता है या नहीं ?'
मुनि बोले कि - 'पूर्वकर्म का जोर तो अवश्य मालूम होता है । यदि पूर्व कर्म शुभ हो तो पवित्र देश में जन्म होता है तथा अशुभ कर्म हो तो अशुभ देश में जन्म होता है । वैसे देश कालादि भी सात हैं । उसमें भी पूर्वकर्मानुसार योग बन जाता है । अतः इन सबमें पूर्व जन्मों की प्रधानता दिखायी पडती है। देश कालादिक आठ बातों की प्रधानता तो किसी किसी स्थान में रहती है । परन्तु पूर्व कर्मो की प्रधानता सर्व स्थलों पर दिखायी देती है ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'देश, काल से लेकर देवताओं तक, परमेश्वर पर्यन्त सभी के सम्बन्ध में यदि पूर्व कर्मो की प्रधानता बताते हैं तो यह बात शास्त्रों के आधार पर प्रतिपादित करते हैं । उनके वचनों के प्रमाण देकर कहिए। कर्मो की प्रधानता एकमात्र जैन शास्त्र में बतायी गयी है । अन्य शास्त्रों में नहीं। अन्य शास्त्रों में तो परमेश्वर तथा उनके भक्तों के संग को ही प्रमुख बताया गया है । अतः आप पूर्व कर्मो का ही प्रतिपादन करते हैं । ऊपर से तो सत्संगी हैं किन्तु अन्दर से नास्तिक हैं । क्यों ? क्योंकि नास्तिकों के सिवा अन्य कोई कर्मो का प्रतिपादन नहीं करते । नास्तिक तो वेदों, शास्त्रों, पुराणों, इतिहासों और महाभारत आदि ग्रंथों को मिथ्या समझते हैं । तथा वे अपने मागधी भाषा के ग्रन्थों को ही सच्चा मानते हैं । अतः वे मूर्ख होने के कारण कर्मो का प्रतिपादन करते हैं । यदि पूर्व कर्मो द्वारा ही देश काल से लेकर देवता पर्यन्त आठ तत्त्व परिवर्तित होते हो तो मारवाड के कितने ही पुण्यात्मा राजा हुए हैं लेकिन उनके लिए एक सौ हाथ गहरा पानी एकदम ऊपर नहीं आया । यदि पूर्व कर्मों के वश में देश हो तो पुण्य कर्मवाले के लिए पानी ऊँचाई पर आ जाना चाहिए और पापियों के लिए पानी गहरा हो जाना चाहिए । ऐसा तो नहीं होता है । मारवाड देश में तो पापी हो या पुण्यवाला परन्तु सबके लिए सर्वत्र गहरा पानी ही निकलता है। किन्तु वह देश अपने गुणों का त्याग नहीं करता । इसलिए देशकालादि का पूर्व कर्मो के अनुसार परिवर्तन नहीं होता । अतः अपने कल्याण की इच्छा जिसे हो उसे तो नास्तिक की तरह से कर्म का बल नहीं रखना चाहिए और अशुभ आठ देश कालादि का त्याग करके शुभ आठ देशकालादि में प्रवृत रहना चाहिए ।
देश तो बाह्म रुप से भी शुभ अशुभ हो सकता है और अपना शरीर रुप देश भी शुभ-अशुभ हो सकता है । जब देह रुपी शुभ देश में जीव रहता हो तब उसमें शील, संतोष, दया, धर्म आदि कल्याणकारी गुण दिखते हैं, और जब जीव देह रुपी अशुभ देश में रहता हो तब काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इत्यादि खराब गुणों की वृद्धि होती रहती है । अच्छा और खराब, जो संग होता है उसकी पहचान यह है कि 'जिससे संग हो, उसके संग किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं रहता तब यह समझना चाहिए कि उसके साथ पूरा संग हो गया है । दिखावे के लिए तो ऊपर से शत्रु को भी गले लगा कर मिलते हैं लेकिन उसका हृदय तो अपने और उसके बीच लाखों कोसों का अन्तर रहता है । इस तरह से बाह्य संग को संग नहीं कहा जा सकता । सच्चा संग तो उसे कहा जाता है जो मन, कर्म और वचन के साथ किया गया हो । अतः इस प्रकार का मन, कर्म, वचन से संग तो परमेश्वर अथवा परमेश्वर के भक्त का ही करना चाहिए जिससे जीव का कल्याण हो । परन्तु पापी का संग तो कभी नहीं करना चाहिए।'
इसके बाद मध्याह्न के समय श्रीजी महाराज ने समस्त छोटे-छोटे विद्यार्थी साधुओं को अपने समीप बुलाकर कहा कि - 'आप सभी विद्यार्थी मुझसे प्रश्न पूछिए ।' तब बडे शिवानन्द स्वामी ने पूछा कि 'जिस भगवान का अचल निश्चय हो, उसे किस प्रकार पहचाना जा सकता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे अचल निश्चय होता है उसके लिए भगवान अच्छी या बुरी किसी भी क्रिया को करें तो वह सभी क्रियाओं को कल्याणकारी समझता है । भगवान की जीत हो या हार हो, किसी स्थान पर भागना पडे या कभ प्रसन्नता हो या शोक हो जाए इस प्रकार की अनन्त क्रियाओं को देखकर निश्चयवाला भक्त यही कहता है कि 'प्रभु की ये समस्त क्रियाएँ कल्याण के लिए हैं । इस तरह से जब भक्त बोलता हो तो उसे परिपक्व निश्चयवाला भक्त समझना चाहिए ।'
निर्मानानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'भगवान और भगवान के सन्त के प्रति दोषबुद्धि न आवे, उसका क्या उपाय है ?'
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जैसे प्रथम कहा गया है कि जिस भक्त को अचल निश्चय होता है तो उसे किसी भी प्रकार से भगवान के विषय में दोषबुद्धि नहीं आती । ऐसे जब वह भगवान के सेवक की महिमा का विचार करता है तब उसके मनमें भगवान के भक्त के लिए भी किसी प्रकार का अवगुण नहीं आता ।'
निर्मानानन्द स्वामी तथा छोटे प्रज्ञानानन्द स्वामी दोनों ने मिलकर पूछा कि - 'जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में भगवान की मूर्ति अखंड किस प्रकार से दिखायी पडती है ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे पूर्वजन्म का शुभ संस्कार प्रबल हो, उसे भगवान की मूर्ति तीनों अवस्थाओं में अखंड दिखाई देती है । अथवा जिसमें भय, काम और स्नेह ये तीनों अखंड हों उसको भगवान के सिवा अन्य पदार्थ तीनों अवस्थाओं में निरन्तर जिसे दिखते हो तो भगवान दिखे उसे क्या कहना? वह तो दिखें ही ।'
छोटे शिवानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'सत्संग में जिसका अचल निश्चय हो उसे कैसे जाना जा सकता है ? एक तो यह प्रश्न है । दूसरा प्रश्न यह है कि मान, काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर और ईर्ष्या इत्यादि जो शत्रु हैं, उनका किस प्रकार से नाश होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे सत्संग का दृढ पक्ष हो तो सत्संग के बारे में कोई खंडन करता है तो वह सहन नहीं कर सकता । जैसे किसी व्यक्ति का अपने कुटुंबीजनों के साथ झगडा हुआ हो तो उसके विरोध में कोई आक्षेप करता है तो वह उससे सहन नहीं होता है । उसी तरह से जैसे देह के सम्बन्धियों का पक्ष है वैसा ही दृष्टिकोण यदि कोई सत्संग के पक्ष में रखता है तो यही कहा जा सकता है कि उसे सत्संग के लिये अचल भाव है । दूसरे प्रश्न का यह उत्तर है, कि 'जिसे सत्संग का पक्ष होता है उसके अन्दर से मान, मद, मत्सर ईर्ष्या आदि समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है । जिसे सत्संगी का पक्ष न हो और सत्संगी तथा कुसंगी के विषय में समभाव हो तो वह सत्संग में चाहे कितना भी बडा कहलाए तो भी वह अन्त में निश्चित रुप से विमुख हो जाता है ।'
छोटे आत्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'भगवान तथा भगवान के सन्त तो जिससे जैसा कहना होता है, उससे वे निःसंकोच वैसा ही कह डालते हैं और उसकी ओर से उन्हें ऐसा विश्वास होता है कि 'इसका मान करेंगे या अपमान करेंगे तो भी वह किसी प्रकार से पीछे नहीं हटेगा । ऐसा भरोसा भगवान तथा भगवान के सन्त को किस प्रकार होता है ? एक तो यह प्रश्न है और दूसरा प्रश्न यह है कि जिस सन्त के पास रहते हों उसका प्रेम अपने पर जैसा हो वैसा ही प्रेमभाव अन्य सन्तों को किस प्रकार रह सकता है ?'
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'शिवानन्द स्वामी के प्रश्न का जैसा उत्तर दिया गया है वैसे सत्संग का दृढ निश्चय जिसे हो उसे कहते सुनते हुये भी भगवान और भगवान के सन्त को संशय नहीं होता उन पर किसी भी तरह से अविश्वास नहीं होता कि इससे कुछ कहेंगे तो सत्संग में से चला जायगा । उसकी ओर से तो दृढ विश्वास ही होता है कि इसका सत्संग तो अचल है अतः उसे कुछ भी कहेंगे तो उसकी चिन्ता नहीं है । दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि जिसके पास पहले रहता हो उसके साथ कुछ अनबन होने पर जब दूसरे के पास जाकर रहता हो तब यदि कोई प्रथम जिसके पास था उसके प्रतिकूल किसी प्रकार के अपशब्द बोले तो वह सहन नहीं कर सकता तब सब सन्तों को यह समझ में आये कि 'यह कृतघ्नी नहीं है, इसने जिसके साथ रहकर चार अक्षर पढे हैं उसका गुण नहीं छोडता । इसलिये बहुत अच्छा साधु है ।' यह जानकर सभी सन्तों का अनुराग उस पर बना रहेगा जिसके पास प्रथम रहा हो उसे छोडकर यदि दूसरे के पास जाय तो प्रथम जिसके पास रहा हो उसकी निंदा करे तो समस्त सन्तों को ऐसा प्रतीत होता है कि 'यह कृतघ्नी पुरुष है । जब अपने साथ नहीं निभेगी तब अपनी भी निन्दा करेगा । तब ऐसे व्यक्ति पर किसी को स्नेह नहीं रह सकता है ।'
दहरानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'भगवान तो अक्षरातीत हैं । मन और वाणी से परे हैं । सबके लिये अगोचर हैं और वे सबको दिखायी पडते हैं । इसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अक्षरातीत तथा मन - वाणी से परे और चर रहने वाले भगवान स्वयं कृपा करके ऐसी धारणा रखते हैं कि ज्ञानी - अज्ञानी ऐसे मृत्युलोक के पुरुष मुझे देखें ।' ऐसे सत्यसंकल्प वाले भगवान मृत्यु लोक के समस्त मनुष्य उन्हें देखें ऐसा स्वरुप धारण करते हैं ।'
त्यागानन्द स्वामीने पूछा कि - 'भगवान प्रसन्न कैसे होते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे भगवान को प्रसन्न करना हो तो उसे शारीरिक सुख की इच्छा नहीं रखनी चाहिये और भगवान के दर्शन का लोभ भी नहीं रखना चाहिये । भगवान जैसी आज्ञा दें, वैसा ही करना चाहिये । यही भगवान को प्रसन्न करने का साधन है ।
लक्ष्मणानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'भगवान और उनके सन्तों का समागम आश्चर्य सदृश कैसे समझें तथा उसकी प्रतीति हो और आठों प्रहर आनन्दानुभूति किस प्रकार हो सकती है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भक्त ऐसा समझते हैं कि ये भगवान, ये सन्त बैकुंठ गोलोक तथा ब्रह्मपुर के निवासी हैं । ऐसे सन्त और परमेश्वर जहाँ विराजमान रहते हैं वहीं वे सब धाम भी हैं तथा उन सन्तों के साथ मेरा निवास हुआ है यह मेरा सद्भाग्य है ।' इस प्रकार से जो समझता है उसके लिये आठों प्रहर आश्चर्य सदृश रहते हैं और वह आठों प्रहर आनन्दसागर में डूबा रहता है ।
परमात्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'श्रीमद् भागवत के एकादश स्कन्ध में सन्त के जो तीस लक्षण बताये गए हैं वे किस उपाय द्वारा आ सकते हैं?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''तीस लक्षण युक्त जो सन्त हो उसमें देवबुद्धि और गुरुबुद्धि रखकर मन, कर्म एवं वचन द्वारा उसका संग करना चाहिये । तब ऐसा संग करने वाले में भी तीस लक्षण आ जाते हैं । इसी तरह से समस्त शास्त्रों में कहा गया है कि 'सन्त की सेवा करने वाले पुरुष सन्त जैसे हो जाते हैं।'
शान्तानन्द स्वामीने पूछा कि - 'एक भक्त तो ऐसा है जो भगवान के स्वरुप में अखंड वृत्ति रखता है तथा अन्य भक्त तो भगवान का भजन स्मरण करने के साथ-साथ स्वयं कथा-कीर्तन करता है और सुनता है । भगवान के इन दो प्रकार के भक्तों में कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे निर्विकल्प समाधि होती हो और उसे देहकी सुध - बुध रहे नहीं और वह कथा-कीर्तन भी न करे तो भी वह श्रेष्ठ भक्त है, और जिसे शरीर का ज्ञान रहता हो और भजन में से उठकर खाने पीने की समस्त दैहिक क्रिया करता हो और भगवान का कथा - कीर्तन न करता हो तथा सुनता भी न हो तो उसकी अपेक्षा भगवान का कथा - कीर्तन करनेवाला और सुनने वाला पुरुष ही श्रेष्ठ होता है ।'
आधारानन्द स्वामी ने पूछा कि - किस प्रकार का आचरण करने से भगवान तथा उनके भक्त प्रसन्न होते हैं ?
श्रीजी महाराज बोले कि - 'पंचव्रतमानों को पूर्ण रुप से रख्खा जाय और उसमें किसी प्रकार की कमी न आने दी जाय तो भगवान तथा उनके सन्त प्रसन्न हो जाते हैं । इसमें लेशमात्र संशय नहीं रखना चाहिये ।'
वेदान्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'पहले जिसका अनुचित आचरण रहा हो तो उसे कौन सा उपाय करना चाहिये कि जिससे उस पर भगवान तथा भगवान के सन्त प्रसन्न हों ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''जिसका अपना खराब स्वभाव हो उसे देखकर भगवान तथा उनके सन्त अप्रसन्न होते हैं । उस स्वभाव का जब विरोध किया जाता है तब जिसका जिसके साथ विरोध होता है तब उसकी जानकारी समस्त जगत को हो जाती है और सन्त को भी इसकी खबर हो जाती है । सन्त तो इस स्वभाव के बैरी होते हैं । इसलिये वे अपने पक्ष में मिलकर अपने ऊपर दया करते हैं और ऐसा उपाय बताते हैं जिससे उस स्वभाव पर काबू पा लिया जाए । अतः इस प्रकार का उपाय करना चाहिये । अतः जिस स्वभाव से अपनी बेइज्जती हुई हो उसका दृढता के साथ दमन करके उसके मूल का नाश कर देना चाहिये । ऐसा आचरण करने से भगवान और भगवान के सन्त की अपने ऊपर पूर्ण दया हो जाती है । इस तरह से जब हरि और उनके हृदय में अतिशय सुख मिलता है और कल्याण के मार्ग पर चलने की सामर्थ्य बढ जाती है । तब उसके काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं की शक्ति क्षीण हो ताी है । अत अपने हृदय में जो शत्रु पीडा पहुँचाता हो उसके साथ अगर अतिशय बैर करें, तो परमेश्वर उसकी सहायता करते हैं । अतः कामादिक शत्रुओं के साथ हंमेशा बैर भाव करना उचित है तथा अपने आन्तरिक शत्रुओं के साथ वैर भाव करने में अधिक लाभ होता है ।
भगवदानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान का भय पास बैठने पर जैसा रहता है वैसा डर दूर जाने पर भी बना रहता है । इस बात को किस प्रकार समझना चाहिये ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि भगवान का माहात्म्य पूर्ण रुप से समझ लिया जाय तो भगवान की मर्यादा जो पास रहने पर रहती है वही दूर जाने पर भी रह सकती है । वह माहात्म्य इस प्रकार समझना चाहिये कि अक्षरातीत पुरुषोत्तम भगवान की इच्छा से अनन्त कोटि ब्रह्मांडों को अपनी शक्ति द्वारा धारण करते हैं । वे भगवान व्यतिरेकी रहते हुये भी सबमें अनन्य भाव से रहे हैं । वे अन्वय होते हुये भी व्यतिरेक हैं । वे भगवान जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ऐसे वे अणु अणु में अर्न्तयामी रुप से विराजमान हैं । उन भगवान की इच्छा के बिना एक तृण भी हिलने में समर्थ नहीं होता । अनन्त कोटि ब्रह्मांड में जो उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है, उनमें जीवों के साथ सुख दुःख का सम्बन्ध भी होता है । यह सब पुरुषोत्तम भगवान के हाथ में है । भगवान जितना करते हैं, उतना ही होता है । ऐसे भगवान जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर पधारते हैं । जब वे घोडे पर बैठ कर चलते हैं तब घोडा भगवान को ऊपर उठा कर चलता है । परन्तु यह तो घोडे का आधार है । जब वे पृथ्वी पर बैठे हो तो ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी भगवान को धारण कर रही है । परन्तु वे स्वयं स्थावर जंगम सहित समग्र पृथ्वी को धारण कर रहे हैं । जब रात्रि होती है तब चन्द्रमा, दीपक या मशाल तथा दिन में सूर्य के प्रकाश से भगवान के दर्शन होते हैं । परन्तु वह भगवान तो स्वयं ही सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि को प्रकाश देने वाले हैं, ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है, तो भी जीवों के कल्याण के लिये मनुष्य रुप धारण करके दर्शन देते हैं ।' इस तरह माहात्म्य समझना चाहिये । तब पास रहने पर जैसी मर्यादा रहती है वैसी ही दूर जाने पर भी रह सकती है ।
भगवदानन्द स्वामी ने पुनः दूसरा प्रश्न पूछा कि - 'भगवान के किये बिना कुछ नहीं होता, सब भगवान का ही किया होता है । तब भगवान अपने भक्त के सामने आने वाले अशुभ देशकाल तथा दुःखों को क्यों नहीं टालते और उन्हें टालने का मंसूबा क्यों करते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''जब भगवान मनुष्यदेह धारण करते हैं तब उनकी यही रीति है कि वे मनुष्य के समान समस्त व्यवहार करें । परन्तु अपनी अलौकिक शक्ति को प्रकट न करें ।' इस तरह से सभी शास्त्रों में भगवान के चरित्र का वर्णन है । अतः जब भगवान कुछ नया चरित्र करेंगे तो संशय करियेगा । परन्तु जहाँ तक वे पूर्व अवतारों जैसा चरित्र करें वहाँ किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिये ।
निर्मलानन्द स्वामी ने पूछा कि - ''किस प्रकार समझें जिससे प्रभु के सन्त की महिमा अच्छी तरह जानी जा सकती है ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - ''भगवान के मत्स्य, कच्छ, वराह, वामन, परशुराम तथा रामकृष्णादि अनेक अवतारों की महिमा पर विचार करना चाहिये कि जिस भगवान ने रामकृष्णादि अवतारों द्वारा अनन्त जीवों का उद्धार किया है उनके ये सन्त हैं और उनके साथ मेरा यह समागम हुआ है । अतः मैं भी अति भाग्यशाली हूँ ।' इस प्रकार से समझने पर सन्त की महिमा दिन - प्रतिदिन बहुत समझ में आ जाती है ।
नारायणानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीनों रुपों में जीव देह में अन्वय एवं व्यतिरेक रुप से किस तरह से रहता है?
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब देह में सुख-दुःख का योग होता है तब जीव अपने में इस सुख दुःख के अस्तित्व को मानता है । तब वह अन्वय भाव से रहता है और जब जीव स्वयं को इन तीनों देहों के सुख-दुःख से अलग समझता है तब वह व्यतिरेक भाव से रहता है ।'
शून्यातीतानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जब पुरुष सत्संग करता है तब उसे सन्त में और सत्संग में अति स्नेह हो जाता है और बाद में उसमें कमी आ जाती है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''प्रथम तो सन्त में अलौकिक मति रहती है और बाद में वह सन्त का अल्प दोष देखकर अपनी कुबुद्धि द्वारा अधिक दोष देखने लगता है । अतः उसकी कुवासना हो जाती है जिससे सन्त के प्रति भावना कम हो जाती है । यदि वह विवेक से कुवासना को टाल दे तो पहले जैसा शुद्ध हो जाता है, और वह कुवासना को समाप्त नहीं करता, तो अन्त में वह विमुख हो जाता है ।
प्रसादानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'जीव के लिये मोक्ष का क्या हेतु है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'सन्त जैसा कहें उसी तरह शंका रहित होकर कार्य करें, वही जीव के लिये मोक्ष का हेतु है ।'
त्रिगुणातीतानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'देश, काल, क्रिया संग उसकी विषमता हो तो वहाँ कैसा उपाय करना चाहिये ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'देश - कालादि की विषमता होने पर उनसे छूटने का यही उपाय है कि वहाँ से किसी भी प्रकार से भाग जाना चाहिये ।'
छोटे निर्विकारानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान का निश्चय है फिर भी कुवासना की समाप्ति क्यों नहीं होती ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''भगवान का यथार्थ माहात्म्य नहीं समझा, इसलिये उसकी असद्वासना नहीं टलती ।''
बडे योगानन्द स्वामी ने पूछा कि - ''यद्यपि भगवान का निश्चय परिपूर्ण है फिर भी भगवान के विषय में और भगवान की कथा में अनुरक्ति क्यों नहीं होती ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - ''भगवान का जैसा माहात्म्य वैसा इस जीव की समझ में नहीं आता । यदि भगवान का माहात्म्य यथार्थ रुप से समझ लिया जाय तो भगवान के सिवा दूसरे पर स्नेह रखने पर भी नहीं रखा जा सकता, तब भगवान और भगवान के सन्त तथा भगवान के कथा - कीर्तन में ही उसकी अचल प्रीति होती है ।'
प्रतोषानन्द स्वामी ने पूछा कि - ''भगवान की भक्ति कैसे अचल रह सकती है ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - ''अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव जो चतुर्व्यूह तथा केशवादि चौबीस मूर्तियाँ तथा वराहादि अवतारों के कारण जो प्रत्यक्ष श्री कृष्ण पुरुषोत्तम भगवान उनकी महिमा को जो अच्छी तरह समझ लेता है, उसके लिये भगवान की श्रवणादिक जो नवधा भक्ति है, वह अचल रहती है ।''
इस प्रकार समस्त मुनियों के प्रश्नों का उत्तर करके श्रीजी महाराज ने सबसे पूछा कि - 'काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नर्क के द्वार हैं । इसमें से जिसको जिसने अधिक जीता हो, उसके बारे में आप सब कहें ?
तब जिसको जिस बात की अतिशय दृढता थी, उसके अनुसार उन्होंने उत्तर दिया । मुनियों के वचनों को सुनकर श्रीजी महाराज अतिशय प्रसन्न हुये तथा आत्मानन्दास्वामी, योगानन्द स्वामी, भगवदानन्द स्वामी तथा शिवानन्द स्वामी को प्रसन्न होकर उनके हृदय में अपने चरणारविन्द दिये, और इस प्रकार से बोले कि जैसे महानुभावानन्द स्वामी आदि बडे सन्त हैं उनके साथ ये चार सन्त भी हैं । अतः इनका किसी भी प्रकार से अपमान मत करने देना ।' इस प्रकार मुक्तानन्द स्वामी आदि बडे साधुओं को आज्ञा देकर श्रीजी महाराज जय सच्चिदानन्द कहकर अपने निवास स्थान पर भोजन करने के लिये पधारे ।
इति वचनामृतम् ।। ७८ ।।
।। श्री गढडा प्रथम प्रकरणम् समाप्तम् ।।